बढ़ता ब्याज और डॉलर के मुकाबले फिसलता रुपया हमारी बहुतेरी कंपनियों के लिए बड़ी मुसीबत बन गया है। ब्याज बढ़ने से सबसे पहले प्रभावित हो रहे हैं बैंक और गैर-बैंकिंग फाइनेंस कंपनियां या एनबीएफसी। बैंक पब्लिक से बचत खातों या एफडी वगैरह से ही धन जुटाकर धंधा करते हैं। यह धन उनका कच्चा माल है जो  अब महंगा हो गया है क्योंकि पब्लिक को उन्हें अधिक ब्याज देना पड़ रहा है। एनबीएफसी बैंकों से ही उधार लेकरऔरऔर भी

वित्तीय जगत आज ग्लोबल हो गया है। इस जगत का केंद्र है अमेरिका। अमेरिका की हलचल यूरोप से लेकर एशिया तक को लपेट लेती है। उसने ब्याज बढ़ाई तो दूसरे देशों को ब्याज दर बढ़ाना ही पड़ता है। वे अगर ब्याज न बढ़ाएं और अमेरिका में ब्याज दर उनसे ज्यादा हो तो उनका धन निकलकर अमेरिका भागने लगेगा। इस तरह डॉलर निकलते रहे तो उसके मुकाबले उनकी अपनी मुद्रा कमज़ोर पड़ती जाएगी। उनके निर्यात डॉलर में सस्तेऔरऔर भी

ब्याज बढ़ने से धन की लागत बढ़ जाती है। शेयर बाज़ार पर इसका सीधा असर यह पड़ता है कि जो विदेशी निवेशक अपने देशों से सस्ता धन लेकर भारत जैसे बाज़ार में लगाते थे, उनके लिए यह महंगा सौदा बन गया है। ऊपर से डॉलर के मुकाबले छीझता जा रहा रुपया कोढ़ में खाज बन गया है। वे भारतीय बाज़ार से रुपए में ज्यादा भी कमा लें तो उनकी कमाई डॉलर में कम हो जाती है। नतीजतन,औरऔर भी

अमेरिका से लेकर यूरोप और भारत तक में ब्याज दरें बढ़ाने का सिलसिला चला हुआ है। तात्कालिक मकसद है चढ़ती मुद्रास्फीति पर काबू पाना, जबकि अंतिम मसकद है अर्थव्यवस्था को नई गति देना। भारत में आर्थिक सुस्ती या ठहराव आ सकता है। लेकिन अमेरिका और यूरोप में तो मंदी की आशंका गहराती जा रही है। इससे डरकर सारी दुनिया के शेयर बाज़ार डूबने लगे हैं। बड़ी सीधी-सरल बात है कि ब्याज दर बढ़ने से बॉन्डों के दामऔरऔर भी

अर्थशास्त्र का पारम्परिक सिद्धांत कहता है कि सभी इंसान तर्कसंगत व्यवहार करते हैं और स्वार्थ से संचालित होते हैं। जाहिर है कि शेयर बाज़ार के निवेशकों पर भी यह सिद्धांत लागू होता है। साथ ही शेयर बाज़ार कंपनियों का मूल्य खोजकर निकालने का तर्कसंगत माध्यम है। सभी इंसान तर्कसंगत, बाजार भी तर्कसंगत। फिर कहां लोचा रह जाता है कि शेयरों में धन लगाकर कुछ लोग कमाते हैं और बहुतेरे गंवाते हैं? यह लोचा है स्वार्थ से चलनेवालेऔरऔर भी