।।पॉल क्रुगमैन*।। हाल की आर्थिक दिक्कतों का एक सबक इतिहास की उपयोगिता के रूप में सामने आया है। इस बार का संकट जब उभर ही रहा था, तभी हार्वर्ड के दौ अर्थशास्त्रियों कारमेन राइनहार्ट और केनेथ रोगॉफ ने बड़े ही चुटीले शीर्षक – This time is different से एक जबरस्त किताब छपवाई। उनकी स्थापना थी कि संकटों के बीच काफी पारिवारिक समानता रही है। चाहे वो 1930 के दशक के हालात रहे हों, 1990 के दशक केऔरऔर भी

।।राममनोहर लोहिया।। हिंदुस्तान की भाषाएं अभी गरीब हैं। इसलिए मौजूदा दुनिया में जो कुछ तरक्की हुई, विद्या की, ज्ञान की और दूसरी बातों की, उनको अगर हासिल करना है तब एक धनी भाषा का सहारा लेना पड़ेगा। अंग्रेज़ी एक धनी भाषा भी है और साथ-साथ अंतरराष्ट्रीय भाषा भी। चाहे दुर्भाग्य से ही क्यों न हो, वह अंग्रेज़ी हमको मिल गई तो उसे क्यों छोड़ दें। ये विचार हमेशा अंग्रेज़ीवालों की तरफ से सुनने को मिलते हैं। इसमेंऔरऔर भी

।। एस पी सिंह ।। ध्वस्त राशन प्रणाली पर खाद्य सुरक्षा विधेयक का बोझ डालने का सीधा मतलब खाद्य सब्सिडी में दोगुनी लूट है। सरकार इसी मरी राशन प्रणाली के भरोसे देश की तीन चौथाई जनता को रियायती मूल्य पर अनाज बांटने का मंसूबा पाले बैठी है, जबकि उसी के आर्थिक सर्वेक्षण के मुताबिक 60 फीसदी रियायती दर वाला गेहूं और 20 फीसदी चावल गरीबों तक पहुंचने से पहले ही लूट लिया जाता है। पिछले वित्त वर्षऔरऔर भी

।।किशोर ओस्तवाल।। हमारे शेयर बाजार में रिटेल निवेशकों को झांसा देने का काम आज से नहीं, दसियों साल से हो रहा है। यही वजह है कि देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 35 फीसदी हिस्सा अब भी बचत के रूप में किनारे पड़ा हुआ है। क्यों? इसलिए कि रिटेल निवेशकों का पूंजी बाजार से भरोसा उठ गया है। सवाल उठता है कि रिटेल निवेशकों की यह हालत क्यों है, इसके लिए कौन जिम्मेदार हैं और उनकेऔरऔर भी

मुन्नी बदनाम हुई गाने की वजह से आजकल झंडुबाम शब्द खूब चर्चा में है। झंडुबाम शब्द को चलताऊ हिन्दी में लगभग मुहावरे का दर्ज़ा मिल चुका है जिसका अर्थ है ऐसा व्यक्ति जो किसी काम का न हो। इसकी अर्थवत्ता में मूर्ख या भोंदू का भाव भी है। झंडु या झंडू शब्द का स्वतंत्र रूप से भी हिन्दी में प्रयोग होता है जिसका अभिप्राय  ऐसे व्यक्ति से है जो मूर्ख, सुस्त या भोंदू है। एक अन्य मुहावरेदार अभिव्यक्ति भीऔरऔर भी

आजकल तो जिस भी आर्थिक फोरम या उद्योग के सेमिनार में जाओ, वहां एसएमई (लघु व मध्यम उद्योग) का नाम जरूर सुनने को मिल जाता है। यह क्षेत्र पिछली मंदी से बुरी तरह चोट खाने के बाद पटरी पर लौटने की पुरजोर कोशिश में लगा है। कुछ को फाइनेंस समय पर मिल जा रहा है, दूसरों से बढ़ी-चढ़ी ब्याज ली जा रही है तो बाकी तय नहीं कर पा रहे हैं कि नई शुरुआत करें या हथियारऔरऔर भी

जगन्नाधम तुनगुंटला हाल में 3 जी या तीसरी पीढ़ी के स्पेक्ट्रम की नीलामी इतनी कामयाब रही कि सरकार को इससे करीब 67,700 करोड़ रुपए मिल सकते हैं, जबकि बजट अनुमान करीब 35,000 रुपए का ही था। यह तकरीबन दोगुनी रकम है। इसके अलावा सरकार को 2 जी स्पेक्ट्रम से वन-टाइम फीस के रूप में 14,500 करोड़ रुपए मिल सकते हैं हालांकि इस पर अभी विवाद चल रहा है जिसका कोई समाधान नहीं निकला है। इस तरह केवलऔरऔर भी

जगन्नाधम तुनगुंटला 1987 में वॉल स्ट्रीट (अमेरिकी शेयर बाजार) के निवेश बैंक जहां-तहां से पूंजी जुटाने की जुगत में भिड़े हुए थे ताकि कबाड़ बन चुके बांडों में अपने निवेश को लगे धक्के से निकलकर बैलेंस शीट को चमकदार बनाया जा सके। ऐसे माहौल में सालोमन ब्रदर्स के लिए संकटमोचन बनकर आ गए वॉरेन बफेट। उन्होंने सालोमन के परिवर्तनीय वरीयता स्टॉक ने 70 करोड़ डॉलर का निवेश कर दिया। अगस्त 1991 तक सब कुछ सही चला। तभीऔरऔर भी

प्रो. माइकल हडसन ग्रीस सरकार का ऋण यूरोपीय ऋणों की लड़ी की वह पहली कड़ी है जो फटने को तैयार है। सोवियत संघ के टूटने से बने देशों और आइसलैंड के गिरवी ऋण इससे भी ज्यादा विस्फोटक हैं। ये सभी देश यूरो ज़ोन में नहीं आते, लेकिन इसमें से ज्यादातर के ऋण यूरो मुद्रा में हैं। मसलन, लात्विया के 87 फीसदी ऋण यूरो या अन्य विदेशी मुद्राओं में हैं। उसको ये ऋण स्वीडन के बैंकों ने दिएऔरऔर भी

जगन्नाधम तुनगुंटला अंग्रेजी में एक वाक्य चलता है कि देयर इज नो ऑल्टरनेटिव यानी टीआईएनओ जिसे लोग टिना कहने लगे हैं। इस समय दुनिया में अमेरिका का वर्चस्व खत्म हो रहा है। लेकिन चूंकि कोई विकल्प नहीं है, इसलिए अमेरिका को सिर पर बैठाए रखने की मजबूरी है। साल 2008 में कंपनियां दीवालियां हुईं। अब देश डिफॉल्ट करने लगे हैं। सिलसिला आइसलैंड से शुरू हुआ, फिर दुबई से होता हुआ ग्रीस जा पहुंचा। फिर पुर्तगाल, आइसलैंड, ग्रीसऔरऔर भी