ठंडा उत्पादन, गरम मुनाफा

।।पॉल क्रुगमैन*।। हाल की आर्थिक दिक्कतों का एक सबक इतिहास की उपयोगिता के रूप में सामने आया है। इस बार का संकट जब उभर ही रहा था, तभी हार्वर्ड के दौ अर्थशास्त्रियों कारमेन राइनहार्ट और केनेथ रोगॉफ ने बड़े ही चुटीले शीर्षक – This time is different से एक जबरस्त किताब छपवाई। उनकी स्थापना थी कि संकटों के बीच काफी पारिवारिक समानता रही है। चाहे वो 1930 के दशक के हालात रहे हों, 1990 के दशक के जापान के, 1920 के दशक के ब्रिटेन के या दूसरे भी ऐसे आर्थिक संकट रहे हों, सबसे आज के लिए अहम सबक सीखे जा सकते हैं।

फिर भी अर्थव्यवस्थाएं समय के साथ बदलती ही हैं। कभी-कभी तो उनमें मूलभूत तब्दीली आ जाती है। सवाल उठता है कि 21वीं सदी के अमेरिका में वाकई क्या अलग है? यहां ऐसा क्या हो गया, जो पहले नहीं था? मेरी समझ से इसका खास उत्तर है – एकाधिकार की बदौलत होती कमाई का बढ़ता महत्व। वो लाभ जो निवेश पर रिटर्न को नहीं, बल्कि बाज़ार में दबदबे के मूल्य को दर्शाता है। कभी-कभी यह दबदबा जायज लगता है, कभी-कभी नहीं। लेकिन जो भी हो, हैसियत से होती कमाई या मिलते ‘किराए’ का बढ़ता महत्व मुनाफे और उत्पादन के बीच संबंध-विच्छेद के नए हालात पैदा कर रहा है। और, हो सकता है कि यह (अमेरिका में) अभी छाई आर्थिक सुस्ती को और खींचता चला जाए।

मैं जो कह रहा हूं, उसे समझने के लिए अलग-अलग दौर की दो महारथी कंपनियों पर गौर करने की जरूरत है: 1950 और 1960 के दशक की जनरल मोटर्स, और अभी की एप्पल। जाहिरा तौर पर अपने ज़माने में जनरल मोटर्स का अलग जलवा था। बाज़ार पर उनकी जबरदस्त पकड़ थी। लेकिन कंपनी का मूल्य मुख्यतः उसकी उत्पादक क्षमता से आता है। उसके पास सैकड़ों फैक्ट्रियां थीं और उसने अमेरिका की गैर-कृषि श्रमशक्ति के तकरीबन एक फीसदी हिस्से को रोज़गार दे रखा था।

दूसरी तरफ, एप्पल के बारे में तो लगता है कि जैसे भौतिक दुनिया से वो ऊपर उठ चुकी है। उसके शेयर का भाव क्या चल रहा है, इसके आधार पर वह कभी अमेरिका की सबसे मूल्यवान कंपनी बन जाती है तो कभी दूसरे नंबर पर आ जाती है। लेकिन इसने अमेरिकी श्रमशक्ति के मात्र 0.05 फीसदी हिस्से को रोज़गार दे रखा है। कहा जा सकता है कि इसकी एक वजह यह है कि उसने अपना उत्पादन दुनिया के दूसरे देशों को आउटसोर्स कर रखा है। लेकिन चीन के लोग भी एप्पल की बिक्री से इतना ज्यादा नहीं कमा पा रहे हैं। आप जिन-जिन आई (पैड, पॉड, फोन…) के लिए जितना दाम देते हैं, उसका खास वास्ता उस गैजेट की उत्पादन लागत से नहीं है। उनकी तरफ कितने लोग टूटते हैं, एप्पल इसके हिसाब से दाम लेती है। और, जहां लोग टूट पड़ते हैं, उसके दाम तो चढ़ ही जाते हैं।

मैं यहां कोई नैतिक पैमाना नहीं पेश कर रहा। आप कह सकते हैं कि एप्पल ने अपनी खास हैसियत बड़ी शिद्दत से हासिल की है, कमाई है। हालांकि मैं पक्के तौर पर नहीं कह सकता कि यही दावा माइक्रोसॉफ्ट के बारे में किया जा सकता है जिसने सालों-साल तक जमकर मुनाफा बटोरा। फाइनेंशियल उद्योग भी अपने एकाधिकार की कमाई खा रहा है। इस समय अमेरिका में पूरे कॉरपोरेट जगत के लाभ का तकरीबन 30 फीसदी हिस्सा फाइनेंशियल उद्योग के खित्ते में जाता है।

खैर, कंपनियां अपनी विशिष्ट हैसियत के काबिल हों या नहीं, जब उनके मुनाफे उत्पादन के बजाय उनकी बाजार ताकत को दर्शाने लगें, तब अर्थव्यवस्था पर अच्छा असर नहीं पड़ता। इधर चीजें बहुत तेज़ी से बदल रही हैं। तमाम अर्थशास्त्री लंबे समय से बढ़ती विषमता की पुरानी कहानी दोहराते रहे हैं जिसमें कौशल के बढ़ते दाम को रेखांकित किया जाता था। लेकिन यह सारा कुछ अब अपनी रही-सही प्रासंगिकता भी खो चुका है। 2000 के बाद असली मुद्दा यह बन चुका है कि अब आय के वितरण का पलड़ा वेतन के बजाय मुनाफे की तरफ झुक चुका है।

लेकिन यहां भी एक उलझन है, पहेली है। जब मुनाफे ज्यादा हैं और ऋण की लागत कम है यानी ब्याज़ दर एकदम कम है, तब बिजनेस में निवेश तेज़ी से क्यों नहीं बढ़ रहा? और, नोट करें कि निवेश इसलिए नहीं दबा हुआ है कि राष्ट्रपति ओबामा ने बिजनेस में लगे लोगों की भावनाओं को आहत किया है या वे सभी को स्वास्थ्य बीमा देने की संभावना से आतंकित हो गए हैं।

वैसे, अगर बढ़ते मुनाफे निवेश पर रिटर्न के बजाय हैसियत से होती कमाई को दिखा रहे हों, तब ऐसी कोई उलझन या पहेली नहीं रह जाती। कोई अपने एकाधिकार के दम पर जबरदस्त मुनाफा कमा सकता है और उसे उत्पादन क्षमता को बढ़ाने की कोई वजह नहीं दिखेगी। यहां भी एप्पल का उदाहरण बड़े काम का है। वो भयंकर मुनाफा कमा रही है। फिर भी कैश के विशाल जखीरे पर कुंडली मारकर बैठी है। उसके पास इस वक्त 39.14 अरब डॉलर का कैश है। लेकिन कंपनी को बिजनेस में नया निवेश करने की कोई जरूरत ही नहीं समझ में आती।

दूसरे शब्दों में कहें तो एकाधिकार के बढ़ती कमाई से वेतन और निवेश से मिलनेवाले वास्तविक रिटर्न, दोनों पर एक साथ नकारात्मक असर पड़ता है। अगर आपको लगता है कि ऐसी हालत व्यापक अर्थव्यवस्था के लिए अच्छी नहीं हो सकती तो आप सही सोच रहे हैं। अगर परिवारों की आय और उनका खर्च बंध जाता है क्योंकि श्रम का हिस्सा राष्ट्रीय आय में छोटा होता चला जाता है तो मांग के न बढ़ने की स्थितियां संगीन होती चली जाएगी। इस दौरान भले ही कंपनियों का मुनाफा चढ़ता जाए, उनके सामने निवेश करने का कोई प्रोत्साहन नहीं रहेगा। हालांकि, मुझे नहीं लगता है कि यह अमेरिकी अर्थव्यवस्था में चल रहे धीमे सुधार का एकमात्र कारण है क्योंकि वित्तीय संकट के बाद कमज़ोर सुधार सामान्य बात है, लेकिन यह शायद आर्थिक पस्ती रहने का एक अहम कारक ज़रूर है।

*लेखक को 2008 अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार मिल चुका है। उनका यह लेख हमने न्यूयॉर्क टाइम्स से साभार लिया है, जहां यह 20 जून 2013 को छपा था।

1 Comment

  1. Paul Krugman has not discussed the real issue. He has stopped short of speaking that it appears or it should appear that money has come in the hands of fools who do not know what to do with that. See how after the assets bubbles burst, how Quantitative Easings (QEs) were organsied for the companies already flush with cash.
    Their appearance of being fools itself might be a bigger fraud. That fraud should escape the discussion thereof at the place where these discussions are intended to take place & taken notice thereof, that is why this fraud has not been reported at all. That fraud is that excess cash combined with the might of cash sucked out of QEs will be used to crush innovations, creativity & productive benefits somewhere else and if in spite of all this if the efforts being resisted somewhere else are still successful, to acquire their ownership (repeat, with the help of combined might of excess cash of which companies are already flush with and cash sucked out of QEs)

    For all the financial scams appearing & reported in US press, see how many (and also who) have been punished. See how the Walmart is punishing the whole retail sector without being punished. It remains as good as un-punished.

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