ऑप्शन प्राइसिंग के ब्लैक-शोल्स मॉडल की तह में जाने से पहले हम एक दूसरे प्राइसिंग मॉडल को जानने की कोशिश करते हैं जो बाद में ब्लैक-शोल्स मॉडल को ठीक से जानने में काम आ सकता है। यह है बायनोमिअल मॉडल। हम इसे यूरोपियन कॉल ऑप्शन पर लागू करके उसका भाव निकालेंगे। बाद में पुट ऑप्शन का भाव कॉल-पुट समता के आधार पर निकाल सकते हैं। याद रखें कि यूरोपियन ऑप्शन सौदे एक्सपायरी के वक्त ही काटे जाऔरऔर भी

अगर आप ऑप्शन ट्रेडिंग करना चाहते हैं तो सबसे पहले यह बात स्वीकार कर लेनी चाहिए कि इसमें 88 प्रतिशत प्रायिकता ऑप्शन बेचनेवाले या राइटर के मुनाफा कमाने की होती है और केवल 12 प्रतिशत प्रायिकता इस बात की होती है कि ऑप्शन खरीदनेवाला जीतकर लाभ कमा सके। यह निष्कर्ष किसी के मन की बात नहीं, बल्कि इसे दुनिया के पहले ऑप्शन एक्सचेंज, शिकागो बोर्ड ऑफ ऑप्शन एक्सचेंज (सीबीओई) के करीब डेढ़ सौ साल के डेटा केऔरऔर भी

अप्रैल माह का आखिरी दिन। गुरुवार था तो डेरिवेटिव सौदों की एक्सपायरी या सेटलमेंट का दिन। इसके विस्तृत आंकड़ों में वह तस्वीर छिपी है जो हमें ऑप्शन ट्रेडिंग की व्यावहारिक स्थिति, उसके विस्तार व महत्व से वाकिफ करा सकती है। इसलिए आज हम इन्हीं आंकडों की तह में पैठेंगे और अब तक हासिल की गई समझ की धार को थोड़ा तेज़ करने की कोशिश करेंगे। एनएसई में कल गुरुवार, 30 अप्रैल को समूचे एफ एंड ओ (फ्यूचर्सऔरऔर भी

आज महीने का अंतिम गुरुवार होने के नाते अप्रैल के डेरिवेटिव सौदों की एक्सपायरी का दिन है। यह दिन आपके लिए बहुत अहम है क्योंकि आज ऑप्शन के भाव, निफ्टी के सेटलमेंट भाव और अलग-अलग कॉल व पुट ऑप्शन की स्थिति पर बारीकी से नज़र डालकर आप ऑप्शन ट्रेडिंग के पैटर्न को समझने का आधार बना सकते हैं, इस पाठ-श्रंखला में अब तक की दस कड़ियों में जो भी पढ़ा है और जो भी समझा है, उसेऔरऔर भी

जीवन के तमाम क्षेत्रों की तरह डेरिवेटिव ट्रेडिंग में भी सिद्धांत और व्यवहार में बड़ा फर्क होता है। फिर भी सिद्धांत जानना इसलिए ज़रूरी है ताकि हम व्यवहार में उतरने का आत्मविश्वास जुटा सकें। उसके बाद उतर गए तो असली दीक्षा व्यवहार ही देता है। मसलन, सिद्धांत कहता है कि ऑप्शन खरीदने में सीमित नुकसान और असीमित लाभ है क्योंकि खरीदने वाले को अधिक से अधिक चुकाया गया भाव या प्रीमियम ही गंवाना पड़ता है, जबकि शेयरऔरऔर भी

ऑप्शंस के भावों की गणना की जटिलता में उतरने से पहले उनकी खरीद-फरोख्त के व्यवहार को थोड़ा और समझने की कोशिश करते हैं। हमने पहले इस सिलसिले में बीमा का उदाहरण लिया था। जब हम एलआईसी से बीमा पॉलिसी खरीदते हैं तो दरअसल हम प्रीमियम देकर अपने जीवन का पुट ऑप्शन खरीद रहे होते हैं। इससे हम अपनी मृत्यु के बाद अपने पर निर्भर परिवार की वित्तीय सुरक्षा हासिल करते हैं। इस मामले में हम ऑप्शन केऔरऔर भी

एक तो शेयरों के भावों को पकड़ना मुश्किल ही है। ऊपर से उसकी छाया के भाव। फिर उसकी गणना में रिस्क-फ्री बांड की ब्याज दर, धन का समय मूल्य, ब्याज की निरतंर चक्रवृद्धि दर, स्टैंडर्ड डेविएशन, वोलैटिलिटी – इम्प्लायड व सालाना दोनों, फिर ओपन इंटरेस्ट। इतनी सारी जटिलता देखकर किसी का भी माथा घूम जाए। ऑप्शन के भावों की गणना वाकई बड़ी दुरूह है। लेकिन ऑप्शंस की अवधारणा बड़ी आसान व सहज है। उसे हम रोजमर्रा केऔरऔर भी

ऑप्शन राइटर वह है जो बिना कोई लॉन्ग पोजिशन पकड़े ऑप्शन बेचता है, जैसे कोई स्टॉक्स या सूचकांकों में शॉर्ट सेलिंग करता है। उसे ऑप्शन बेचने पर उसका भाव या प्रीमियम मिल जाता है। लेकिन उसे पूरी तैयारी रखनी पड़ती है कि अगर ऑप्शन धारक खरीदने या बेचने का अपना अधिकार पाना चाहता है तो वह उसे पूरा कर सके। जहां ऑप्शन खरीदने वाला केवल प्रीमियम या भाव देकर मुक्त हो जाता है, वहीं ऑप्शन बेचने वालेऔरऔर भी

शेयर बाज़ार के डेरिवेटिव सेगमेंट का निर्मम सच यही है कि इसमें सबसे ज्यादा कारोबार निफ्टी ऑप्शंस में होता है जिसमें ज्यादातर आम ट्रेडर आप्शंस बेचते नहीं, खरीदते हैं। लेकिन दो-तिहाई से लेकर तीन-चौथाई से ज्यादा मामलों (मोटे तौर पर दस में से आठ) में आप्शंस खरीदने नहीं, बल्कि बेचने वालों को फायदा होता है। कमाल की बात यह है कि यह किसी साजिश या समझ के चलते नहीं, बल्कि ऑप्शंस के भाव निर्धारण के तरीके मेंऔरऔर भी

ऑप्शंस के भाव कभी शेयरों की तरह नहीं चलते कि मांग सप्लाई से ज्यादा हुई तो बढ़ गए और मांग सप्लाई से कम हुई तो घट गए। ये तो महज छाया हैं कैश-सेगमेंट में शेयरों की चाल की। वह भी महीने भर या सप्ताह का चक्र है। जिस तरह दिख रहे चंद्रमा का आकार अमावस्या और पूर्णिमा के बीच बदलता रहता है, कुछ-कुछ वैसी ही गति ऑप्शंस भावों की होती है। हमें कैश-सेगमेंट में शेयरों और डेरिवेटिव्सऔरऔर भी