जीवन के तमाम क्षेत्रों की तरह डेरिवेटिव ट्रेडिंग में भी सिद्धांत और व्यवहार में बड़ा फर्क होता है। फिर भी सिद्धांत जानना इसलिए ज़रूरी है ताकि हम व्यवहार में उतरने का आत्मविश्वास जुटा सकें। उसके बाद उतर गए तो असली दीक्षा व्यवहार ही देता है। मसलन, सिद्धांत कहता है कि ऑप्शन खरीदने में सीमित नुकसान और असीमित लाभ है क्योंकि खरीदने वाले को अधिक से अधिक चुकाया गया भाव या प्रीमियम ही गंवाना पड़ता है, जबकि शेयर या सूचकांक की घट-बढ़ का सारा फायदा उसे मिल सकता है। लेकिन व्यवहार में अतीत का विशद डेटा बताता है कि ऑप्शन खरीदार 100 में केवल 12 सौदों में ही कमा पाते हैं, जबकि 88 सौदों में वे अपनी रकम गंवा देते हैं।
इसी तरह ऑप्शन विक्रेता या राइटर के बारे में सिद्धांत कहता है कि उन्हें सीमित फायदा मिलता है, जब असीमित नुकसान उठाना पड़ सकता है। लेकिन व्यावहारिक सच यह है कि वे 100 में से 88 सौदों वे ही कमाते हैं। इसकी एक वजह तो यह है कि उनके पास धन व अनुभव की कोई कमी नहीं होती। दूसरे, वे अपनी हर पोजिशन को हेज करके चलते हैं। जैसे उसने किसी स्टॉक का कॉल ऑप्शन बेचकर रखा है और अगर वह बढ़ने लगे तो वह फौरन उसके कॉल ऑप्शन को वापस खरीद कर अपना घाटा सीमित या खत्म कर लेता है। साथ ही अधिकांश ऑप्शन राइटर शुरू से ही एक कॉल बेचते हैं तो दूसरी खरीद कर रखते हैं। कभी-कभी वे कॉल ऑप्शन बेचते हैं तो उसी स्टॉक का फ्यूचर्स भी खरीद कर रखते हैं। इस तरह जटिल से जटिल रणनीति अपनाकर वे कमाने में उस्ताद हैं।
यही नहीं, वे ऐसे स्ट्राइक प्राइस के ऑप्शन बेचने की जुगत में रहते हैं जो उस डेरिवेटिव चक्र में कभी ट्रिगर ही नहीं होगा। याद रखें कि कॉल ऑप्शन का विक्रेता हमेशा स्टॉक या बाज़ार को लेकर मंदी की धारणा रखता है। वह ऐसे ही स्ट्राइक प्राइस का कॉल ऑप्शन बेचता है जो एक्सपायरी के अनुमानित भाव के बराबर या ज्यादा रहता है। वहीं, पुट ऑप्शन का राइटर हमेशा स्टॉक या बाज़ार को लेकर तेज़ी की धारणा रखता है। वह ऐसे ही स्ट्राइक प्राइस का पुट ऑप्शन बेचता है जो एक्सपायरी के अनुमानित भाव के बराबर या कम रहता है। इसमें वह मिस-प्राइसिंग व ओवर-प्राइसिंग का खेल भी करता रहता है। वह सुनिश्चित करता है कि स्ट्राइक प्राइस कभी ट्रिगर होने की नौबत ही न आए और डेरिवेटिव सौदों का चक्र खत्म होने पर सारा प्रीमियम उसके लाभ खाते में बना रहे। आम ट्रेडर को अगर मिस-प्राइसिंग या ओवर-प्राइसिंग वाले ऑप्शन पकड़ने की कला आ जाए तो वह भी इन ऑप्शंस को बेचकर कमाई कर सकता है।
फिर भी सवाल तो उठता ही है कि जब ऑप्शन बेचने में इतना फायदा है तो आम ट्रेडर ऑप्शन खरीदने के चक्कर में क्यों पड़ा रहता है? इसकी बड़ी वजह यह है कि ऑप्शन विक्रेता या राइटर को अच्छा-खासा मार्जिन देना पड़ता है। उसे हमेशा अपने ब्रोकरेज खाते में इतना अतिरिक्त धन रखना पड़ता है ताकि स्टॉक या सूचकांक के किसी भी उतार-चढ़ाव को कवर किया जा सके। और, यह मार्जिन हर दिन बढ़ता-घटता रहता है तो वे उसे बराबर चौकन्ना रहना पड़ता है और खाते में धन भरते रखना पड़ता है। फ्यूचर्स सौदे में यह उथल-पुथल लगातार मची रहती है तो आम ट्रेडर उनसे दूर भागता है। वहीं, ऑप्शन खरीदने में मार्जिन का कोई लफड़ा नहीं रहता। वह निश्चित भाव या प्रीमियम देकर ऑप्शन खरीद लेता है। फिर एक्सपायरी तक निश्चिंत रहता है। तब या तो स्ट्राइक भाव और अंतिम भाव के अंतर का फायदा उसे मिल जाता है, नहीं तो उसका प्रीमियम डूब जाता है।
लेकिन ऑप्शन बेचने पर मार्जिन का फंदा उसके गले में पड़ जाएगा। धनवान लोगों को इससे फर्क नहीं प़ड़ता। इसलिए वे ऑप्शन राइटिंग या फ्यूचर्स सौदों में कोई भेद नहीं करते। दोनों ही उनके लिए एकसमान हैं। फिर भी हमें ऑप्शन राइटर के मार्जिन का लफड़ा कायदे समझ लेना चाहिए। मालूम हो कि स्टॉक एक्सचेज मार्जिन इसलिए लेते हैं ताकि सौदा पूरा करने में कोई डिफॉल्ट आड़े न आ सके और क्रेता व विक्रेता किसी भी पक्ष को कोई दिक्कत न हो।
ऑप्शन खरीदनेवाले जो भी प्रीमियम देते हैं, वह ऑप्शन बेचनेवाले को सौदे के अगले दिन स्टॉक एक्सचेंज से नकद मिल जाता है। फिर भी एक्सचेंज ऑप्शन विक्रेता या राइटर को संभावित नुकसान का सामना करने के लिए एक निश्चित मार्जिन रखने को कहता है। इस मार्जिन की गणना शिकागो मर्कैंटाइल एक्सचेंज द्वारा विकसित विशेष सॉफ्टवेयर प्रोग्राम, स्पैन (स्टैंडर्ड पोर्टफोलियो एनालिसिस ऑफ रिस्क) के ज़रिए की जाती है। यह प्रोग्राम हर ऑप्शन पोजिशन के लिए 16 काल्पनिक स्थितियों में अधिकतम संभावित नुकसान की गणना करता है और उसके आधार पर ऑप्शन राइटर द्वारा दिया जानेवाला मार्जिन निकाल कर बताता है। स्पैन की गणना का तरीका हम आगे कभी गहराई से जानेंगे।
ऑप्शन राइटर एक्सचेंज के ब्रोकर / क्लियरिंग सदस्य को यह मार्जिन चार तरीके से दे सकता है। ये चार तरीके हैं – कैश या उसके समतुल्य सरकारी बांड. बैंकों की एफडी, एक्सचेंज की क्लियरिंग इकाई के पक्ष में जारी बैंक गारंटी और कस्टोडियन के पास डिमैट स्वरूप में रखे शेयर या अन्य अनुमोदित प्रतिभूतियां। गणना की आसानी के लिए बता दें कि ऑप्शन राइटर को हमेशा सौदे की नोशनल कॉन्ट्रैक्ट वैल्यू का करीब 20 से 40 प्रतिशत हिस्सा बतौर मार्जिन देने को तैयार रहना चाहिए।
आप पूछेंगे कि नोशनल कॉन्ट्रैक्ट वैल्यू (एनसीवी) क्या है तो इसे एक उदाहरण से समझते हैं। मान लीजिए कि किसी ने निफ्टी में 9300 के स्ट्राइक प्राइस वाला पुट ऑप्शन 41.50 रुपए में बेचा। इसमें लॉट 75 का है तो इस सौदे की एनसीवी हुई (9300 + 41.50) x 75 = 7,00,612.50 रुपए। मार्जिन की गणना इस सात लाख रुपए से ऊपर की रकम पर की जाएगी। यह मार्जिन अमूमन एनसीवी का 20 से 40 प्रतिशत यानी 1.40 लाख से 2.80 लाख रुपए तक हो सकता है। आम ट्रेडर को यह रकम ज्यादा लग सकती है। लेकिन मंजे हुए ऑप्शन राइटर के लिए इसे मामूली ही माना जाएगा।
फिर यह भी जान लें कि मार्जिन का मतलब नुकसान नहीं होता। यह तो आकस्मिक नुकसान की भरपाई के लिए है तकि कहीं कोई डिफॉल्ट न हो। मान लीजिए कि ऑप्शन राइटर ने ब्रोकर को बैंक एफडी दी है तो यह उसके खाते में बंधक की तरह रखी रहेगी और उसे इस पर ब्याज मिलता रहेगा। ऐसी स्थिति में मार्जिन रखने के लिए उसे कोई अतिरिक्त लागत नहीं उठानी पड़ेगी। अगर उसने बैंक गारंटी के रूप में मार्जिन दिया है तो गारंटी के लिए दिया गया बैंक कमीशन उसकी लागत होगा। अगर उसने शेयर गिरवी रखे हैं तो उसकी प्रभावी लागत शून्य होगी। इस तरह मार्जिन की राशि भले ही ज्यादा हो, लेकिन उसकी लागत मामूली होती। हां, अगर डिफॉल्ट की स्थिति आती है तो उसकी लागत भारी पड़ सकती। लेकिन इसका दोष उसके सौदे में हैं, न कि मार्जिन प्रणाली में।