पहले जब तक गांव से ज्यादा जुड़ाव था, नौकरीपेशा तबके को जीवन बीमा की जरूरत नहीं लगती थी। भरोसा था कि जमीन-जायदाद के दम पर हारी-बीमारी से लेकर बुढ़ापे तक का इंतजाम हो जाएगा। लेकिन गांव से रिश्ता टूटता गया और ज्यादातर जोतों का आकार घटकर दो-ढाई एकड़ से कम रह गया तो अब हर कोई जीवन बीमा की सोचने लगा है। मगर, आंख पर पट्टी बांधकर। जैसे, मेरे एक हिंदी पत्रकार मित्र हैं। अंग्रेजी-हिंदी दोनों भाषाओंऔरऔर भी

समूचा जीवन बीमा उद्योग दस सालों में पहली बार प्रीमियम आय में आई कमी से भयंकर सदमे में आ गया है। गंभीर मंथन शुरू हो गया है कि आखिर चूक कहां से हो गई। ‘बैक टू बेसिक्स’ की चर्चाएं चलने लगी हैं। एक तरफ बताया जा रहा है कि भारत का जीवन बीमा बाजार 6.6 लाख करोड़ डॉलर का है जो देश के कुल जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) का करीब ढाई गुना है। वहीं, दूसरी तरफ हकीकतऔरऔर भी

बीमा कारोबार को निजी क्षेत्र के लिए खोले हुए दस साल से ज्यादा हो चुके हैं। लेकिन साधारण बीमा ही नहीं, जीवन बीमा तक में अभी तक सरकारी कंपनियों का दबदबा है। बीमा नियामक संस्था, आईआरडीए (इरडा) की तरफ से जारी ताजा आंकड़ों के मुताबिक चालू वित्त वर्ष 2011-12 में अप्रैल से दिसंबर तक के नौ महीनों में जहां साधारण बीमा में मिले प्रीमियम का 58.3 फीसदी सरकारी कंपनियों की झोली में गया है, वहीं जीवन बीमाऔरऔर भी

जापान की निप्पन लाइफ इंश्योरेंस कंपनी रिलायंस म्यूचुअल फंड में भी 26 फीसदी इक्विटी खरीदेगी। यह सौदा 29 करोड़ डॉलर (1450 करोड़ रुपए) में हुआ है जो भारतीय म्यूचुअल फंड उद्योग में अब तक किया गया सबसे बड़ा प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) है। इससे पहले अमेरिका की टी रोवे ने यूटीआई म्यूचुअल फंड में 26 फीसदी हिस्सा 14.24 करोड़ डॉलर और जापान की नोमुरा एएमसी ने एलआईसी म्यूचुअल फंड का 35 फीसदी मालिकाना 6.28 करोड़ डॉलर मेंऔरऔर भी

आमतौर पर जीवन बीमा का फॉर्म हम खुद नहीं भरते। एजेंट निशान बनाकर देता है कि यहां-यहां आपको दस्तखत करने हैं और हम कर देते हैं। हम शर्तों को तो क्या, फॉर्म तक को ठीक से पढ़ने की जहमत नहीं उठाते। लेकिन यह कानूनन गलत है। कानून के मुताबिक जीवन बीमा का फॉर्म बीमाधारक की अपनी हैंडराइटिंग में भरा जाना जरूरी है। नहीं तो बीमा कंपनी इसी बात को आधार बनाकर उसका क्लेम खारिज कर सकती है।औरऔर भी

कहते हैं कि ग्राहक भगवान होता है पर अभी कुछ समय पहले तक भारत की बीमा कंपनियों का सोचना इससे उलट था। उनके लिए पॉलिसीधारक ऐसा निरीह प्राणी होता था जो शायद परेशानी सहने के लिए अभिशप्त है। लेकिन बीमा नियामक व विकास प्राधिकरण (आईआरडीए या इरडा) की पहल से अब माहौल बदल चुका है। कैसी समस्याएं: अमूमन जीवन बीमा पॉलिसीधारकों को जो समस्याएं सताती हैं उनमें खास हैं – पॉलिसी बांड नहीं मिला, गलत पॉलिसी बांडऔरऔर भी

अभी पिछले ही हफ्ते शनिवार, 11 फरवरी को बीमा नियामक संस्था, आईआरडीए (इरडा) ने जीवन बीमा कंपनियों के एजेंटों के बारे में नए दिशानिर्देश जारी किए हैं और आज, 15 फरवरी को इन्हीं दिशार्निदेशों का संबंधित हिस्सा साधारण या गैर-जीवन बीमा एजेंटों पर भी लागू कर दिया। नए दिशानिर्देश 1 जुलाई 1011 से लागू होंगे। इनके अनुसार साधारण या जीवन बीमा कंपनी के कर्मचारी का कोई भी नाते-रिश्तेदार उस कंपनी का बीमा एजेंट नहीं बन सकता। नाते-रिश्तेदारऔरऔर भी

लोगों में व्यक्तिगत जीवन बीमा पॉलिसियां लेने के बजाय सामूहिक बीमा पॉलिसियां लेने का रुझान बढ़ रहा है। यह सच झलकता है बीमा नियामक संस्था, आईआरडीए (इरडा) द्वारा शुक्रवार को जारी किए गए ताजा आंकड़ों से। दिसंबर 2010 तक सभी 23 जीवन बीमा कंपनियों के कारोबार संबंधी आंकड़ों से पता चलता है कि दिसंबर 2009 से दिसंबर 2010 के बीच जहां सामूहिक बीमा स्कीमों में कवर किए गए लोगों की संख्या 27.93 फीसदी बढ़ गई है, वहींऔरऔर भी

हम में से बहुत लोग लाइफ इंश्योरेंस पॉलिसी लेते समय खुद बहुत कम सोचते हैं। ज्यादातर वे एजेंट की बातों पर भरोसा करते हैं या उसकी वाकपटुता के जाल में आकर फैसला कर बैठते हैं और एजेंट उन्हें अपने मन मुताबिक (कमीशन-माफिक) लाइफ इंश्योरेंस पॉलिसी बेच देता है। फिर क्या करें: सिर्फ यह कीजिए कि  फैसला खुद लीजिए कि आपको  कौन-सी लाइफ इंश्योरेंस पॉलिसी  खरीदनी है? एजेंट द्वारा सुझाई गई कम प्रीमियम वाली पॉलिसी को तभी तवज्जोऔरऔर भी