संभावनाओं के आकाश व हकीकत के पाताल में मचा मंथन बीमा उद्योग में

समूचा जीवन बीमा उद्योग दस सालों में पहली बार प्रीमियम आय में आई कमी से भयंकर सदमे में आ गया है। गंभीर मंथन शुरू हो गया है कि आखिर चूक कहां से हो गई। ‘बैक टू बेसिक्स’ की चर्चाएं चलने लगी हैं। एक तरफ बताया जा रहा है कि भारत का जीवन बीमा बाजार 6.6 लाख करोड़ डॉलर का है जो देश के कुल जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) का करीब ढाई गुना है। वहीं, दूसरी तरफ हकीकत यह है कि यह उद्योग 2007-08 से भी बदतर हालत में पहुंच गया है।

बीते हफ्ते मुंबई में बीमा उद्योग की संभावनाओं और हकीकत की तनातनी पर एक समारोह में उद्योग के सारे दिग्गजों के बीच जमकर मंथन हुआ। इस मंथन की गंभीरता इस बात से समझी जा सकती है कि बीमा नियामक संस्था, आईआरडीए (इरडा) के चेयरमैन जे हरिनारायण की मौजूदगी के बावजूद मीडिया को इस आयोजन से दूर रखा गया। मूल मकसद था कि बिना कोई हल्ला मचाए उन सवालों पर ईमानदारी व संजीदगी से विचार किया जाए जिनसे आज जीवन बीमा उद्योग रू-ब-रू है।

इस एक दिन के सम्मेलन का आयोजन भारतीय बीमा संस्थान (आईआईआई) ने किया था और इसमें ‘बैक टू बेसिक्स’ का एजेंडा तय करने का श्रेय संस्थान के सेक्रेटरी जनरल शरद श्रीवास्तव को जाता है। शुक्रवार, 28 जनवरी को हुए इस सम्मेलन में बीमा उयोग के करीब 200 प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया। इसमें एलआईसी के प्रबंधन निदेशक डी के मेहरोत्रा से लेकर सेबी के पूर्व चेयरमैन जी एन बाजपेयी, टाटा एआईजी के सीईओ सुरेश महालिंगम, भारती अक्सा लाइफ के सीईओ संदीप घोष, फ्चूयर जनराली के सीईओ दीपक सूद, स्टार यूनियन दायची के सीईओ कमलजी सहाय और एलआईसी के कार्यपालक निदेशक एस रॉयचौधरी जैसी तमाम दिग्गज हस्तियां शामिल थीं।

सम्मेलन का विषय-प्रवर्तन खुद इरडा के चेयरमैन हरिनारायण ने किया। उनकी बात का सार यह था कि बीमा का बुनियादी आधार है, बीमा कंपनी और बीमाधारक के बीच विश्वास। आज यही विश्वास गायब हो गया है। आज वितरकों ही नहीं, मीडिया के स्तर तक पर बीमा की सही समझ व जागरूकता का अभाव है। बीमा उद्योग को यह बात समझनी होगी। साल 2011-12 बीमा उयोग के लिए खराब रहा है। 2012-13 इससे भी बदतर होने जा रहा है। लेकिन 2013-14 अच्छा होगा, बशर्ते उद्योग अपनी कमियों की सही शिनाख्त करके उन्हें सही कर ले।

बहस को जमीनी धरातल पर लाते हुए सेबी व एलआईसी के पूर्व चेयरमैन जी एन बाजपेयी ने कहा कि जीवन बीमा उद्योग इस समय 2007-08 से भी पीछे पहुंच गया है। इसकी वजह यह है कि देश के बीमा उद्योग में पिछले सात सालों से गुरिल्ला युद्ध छिड़ा हुआ है। सात-आठ सालों में ब्रेक-इवेन हो जाना चाहिए था। लेकिन कंपनियां गहरी जेब की बदौलत खर्च करती रहीं। पर इसके बावजूद ज्यादातर के लिए लाभार्जन की स्थिति नहीं बनी।

बता दें कि इस समय 26 फीसदी एफडीआई (प्रत्यक्ष विदेशी निवेश) की इजाजत के कारण दुनिया की दिग्गज बीमा कंपनियां भारत में किसी न किसी के साथ मिलकर धंधे में उतर चुकी हैं। इस समय देश में कुल 24 जीवन बीमा कंपनियां और 24 साधारण बीमा कंपनियां सक्रिय हैं। साल 2001 में इस उद्योग को निजी क्षेत्र के लिए खोले जाने के वक्त कुल जमा प्रीमियम जीडीपी का 2.3 फीसदी था, जबकि 2011 में यह जीडीपी का 5.2 फीसदी हो गया है। इसे ही बीमा की पहुंच या penetration कहा जाता है।

भारतीय बीमा संस्थान के सलाहकार एस एस कुट्टी ने बुनियादी सवालों से सम्मेलन को झकझोरने की कोशिश की है। उन्होंने कहा कि मूल सिद्धांत पर चला जाए तो बीमाधारक को उसके सालाना प्रीमियम का 10,000 फीसदी कवर या रिटर्न दिया जा सकता है। लेकिन सारा उद्योग पारस्परिकता की मूल धारणा से विचलित होकर यूलिप जैसे उत्पादों में उतर गया। यूलिप कभी भी जीवन बीमा उद्योग की रोजी-रोटी (ब्रेड एंड बटर) नहीं बन सकता। वह ज्यादा से ज्यादा ऐड-ऑन उत्पाद ही हो सकता है।

स्टार यूनियन दायची के प्रमुख कमलजी सहाय ने जोर देकर कहा कि जीवन बीमा कभी भी निवेश उत्पाद नहीं हो सकता और इसे कभी भी निवेश उत्पाद के रूप में नहीं बेचा जाना चाहिए। आज स्थिति यह है कि बीमाधारक के साथ जीवन बीमा के मूल पर बात नहीं होती, बल्कि उसे यह बताया जाता कि आपको कितना लगाना है और आपको उस पर कितना रिटर्न मिलेगा। टाटा एआईजी के प्रमुख सुरेश महालिंगम ने एक हालिया रिपोर्ट का हवाला देते हुए बताया कि भारत में प्रोटेक्शन गैप यानी जीवन बीमा कवर की मांग का स्तर 6.6 लाख करोड़ डॉलर (330 लाख करोड़ रुपए) का है। मानव स्वभाव से ही सुरक्षा खोजता है जिसे बीमा व्यवसाय पूरा करता है। लेकिन स्थितियां काफी तेजी से बदल रही हैं। पहले लोग कम उम्र में मर जाते थे। अब ज्यादा जीने की समस्या हो गई है, जिसके रिस्क कवर की जरूरत है। लोग अपने तक सीमित होते जा रहे हैं। वे दूसरों को सब्सिडाइज नहीं करना चाहते।

इसी क्रम में सरकार के नीतिगत ठहराव पर भी उंगलियां उठाई गईं। भारती अक्सा लाइफ के प्रमुख संदीप घोष ने कहा कि सरकार ने न जाने कब से 49 फीसदी एफडीआई का मामला लटका रखा है। जबरस्ती का नियमन किया जा रहा है, जबकि जोर उद्योग के विकास पर होना चाहिए। उन्होंने परोक्ष रूप से इरडा के रुख पर सवाल उठाते हुए कहा कि पेंशन उत्पादों पर गारंटीशुदा रिटर्न कैसे हो सकता है? नोट करने की बात यह है कि नए साल 2012 में अभी तक किसी भी बीमा कंपनी का कोई पेंशन उत्पाद बाजार में नहीं है।

सारे मंथन के बीच सेबी व एलआईसी के पूर्व चेयरमैन जी एन बाजपेयी ने उद्योग को चेताया कि इस समय एनपीएस (राष्ट्रीय बचत योजना) बहुत कम लागत पर 10.7 फीसदी रिटर्न दे रही है। वह बढ़ गई तो बीमा कंपनियों के पेंशन उत्पादों को कौन पूछेगा? कल अगर म्यूचुअल फंड आक्रामक तरीके से आगे बढ़ने लगे तो जीवन बीमा कंपनियों के यूलिप उत्पाद एक सिरे से उड़ जाएंगे। ऐसे में जीवन बीमा उद्योग को अपनी अलग स्पष्ट जमीन नए सिरे से तलाशनी व बनानी होगी। लेकिन इस चेतावनी के ऊपर भारती अक्सा के संदीप घोष का यह सवाल मंडराता रहा कि भारत के बीमा व्यवसाय में लागत दुनिया में सबसे ज्यादा और मार्जिन सबसे कम क्यों है?

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