शेखचिल्ली के बड़े-बड़े दावे। सारे के सारे खोखले, ज़मीन पर फिसड्डी। चाहे वो राष्ट्रीय सुरक्षा का मसला हो या अर्थव्यवस्था का। मोदी सरकार की 10-11 साल की कुल जमापूंजी यही है। वो समस्याएं सुलझाती नहीं। नई समस्याएं ज़रूर पैदा कर देती है। पिछले दशक में अर्थव्यवस्था में दोहरी बैलेंसशीट की समस्या थी। एक तरफ कॉरपोरेट क्षेत्र पर ऋण का बोझ ज्यादा ही बढ़ गया था। दूसरी तरफ बैंकों के एनपीए या डूबत ऋण काफी बढ़ गए थे।औरऔर भी

यह कहीं इधर-उधर की नहीं, बल्कि खुद भारतीय रिजर्व बैंक की ताज़ा रिपोर्ट में जताई गई चिंता है। भारतीय परिवारों पर चढ़ा ऋण जून 2021 में जीडीपी का 36.6% हुआ करता था। यह दिसंबर 2023 तक 40.2%, मार्च 2024 तक 41% और जून 2024 तक 42.9% पर पहुंच गया। 2015 से 2019 तक हमारे घरों पर चढ़ा ऋण औसतन जीडीपी का 33% हुआ करता था। इससे भी पहले चले जाएं तो वित्त वर्ष 2011-12 के अंत मेंऔरऔर भी

उधार लेना भारतीय संस्कृति, समाज व परम्परा का हिस्सा कभी नहीं रहा, जबकि पश्चिमी देशों में ‘अभी खरीदो, बाद में चुकाओ’ आम जीवन का हिस्सा बन चुका है। इसका प्रमुख कारण यह हो सकता है कि भारत में भावी आय का कोई भरोसा या गारंटी नहीं है, जबकि पश्चिमी देशों में नौकरी गई, तब भी कई महीनों तक ठीकठाक बेरोज़गारी भत्ता मिलता रहता है। लेकिन विडम्बना यह है कि भारतीय संस्कृति के सबसे बड़े घोषित रक्षक दलऔरऔर भी

देश के मध्यवर्ग के लिए स्वास्थ्य बीमा लेना एक ज़रूरी खर्च है। लेकिन वह इतने दवाब में है कि इस खर्च से भी हाथ खींच रहा है। ताज़ा आंकड़ों के मुताबिक मार्च में खत्म हुए वित्त वर्ष 2024-25 में बीमा कंपनियों को मिला कुल स्वास्थ्य बीमा प्रीमियम केवल 8.98% बढ़ा है, जबकि पिछले वित्त वर्ष 2023-24 में यह 20.25% बढ़ा था। आर्थिक दबाव से उच्च मध्यवर्ग भी नहीं बचा है। पिछले साल अमेरिका, कनाडा, ब्रिटेन और यूरोपीयऔरऔर भी

भारत की अर्थव्यवस्था या जीडीपी आंकड़ों में भले ही बढ़ रहा हो। लेकिन आम भारतीय आज बरबादी की कगार पर खड़ा है। हॉटमेल के संस्थापक और नामी उद्यमी सबीर भाटिया तो कहते हैं कि भारत में जीडीपी ही गलत तरीके से निकाला जाता है। उनका कहना है कि दुनिया में अमेरिका जैसे तमाम देशों में जीडीपी की गणना सीधे-सीधे इस आधार पर की जाती है कि वहां के लोगों ने कितना काम किया और उस काम काऔरऔर भी

मोदी सरकार प्रधानमंत्री, विदेश मंत्री या वाणिज्य मंत्री नहीं, बल्कि अफसरों व सरकारी सूत्रों के हवाले दम भर रही है कि वो 75 देशों को ट्रम्प से मिली 90 दिन की मोहलत में भारत के व्यापारिक हितों की न केवल रक्षा कर लेगी, बल्कि होड़ में चीन, बांग्लादेश, वियतनाम व इंडोनिशिया जैसे तमाम देशों को मात दे देगी। हालांकि दबे स्वर से उसे मानना पड़ रहा है कि ट्रम्प के टैरिफ दबाव से भारत में न केवलऔरऔर भी

मोदी सरकार ने अपने टुच्चे स्वार्थ के लिए भारत को अमेरिका और चीन के दो पाटों के बीच बुरी तरह फंसा दिया है। वो ट्रम्प के 26% जवाबी टैरिफ का विरोध इसलिए नहीं कर रही है क्योंकि अमेरिका में न्याय विभाग की सघन जांच के बाद न्यूयॉर्क की संघीय अदालत ने गौतम अडाणी के खिलाफ रिश्वतखोरी और फ्रॉड का अभियोग तय कर दिया है। इस पर पिछले महीने हेग कन्वेंशन के तहत भारत सरकार को अहमदाबाद कीऔरऔर भी

चीन ने राष्ट्रवाद का दम दिखा दिया। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने चीन के आयात पर पहले के 20% के ऊपर 34% टैरिफ (कुल 54%) लगाया तो उसने भी अपने यहां सारे अमेरिकी माल के आयात पर 34% शुल्क लगा दिया। ट्रम्प ने जवाब में 104% टैरिफ लगा दिया तो चीन ने भी टैरिफ बढ़ाकर 84% कर दिया। ट्रम्प ने झल्लाकर चीनी माल पर आयात शुल्क 145% कर दिया तो चीन ने उसका जवाब 125% शुल्क सेऔरऔर भी

टैरिफ युद्ध पर दुनिया के सबसे ज्यादा आयात करनेवाले देश अमेरिका और सबसे ज्यादा निर्यात करनेवाले देश चीन के बीच वार-पलटवार जारी है। अमेरिका के 54% के जवाब में चीन में 84% टैरिफ लगाया तो अमेरिका ने उसे पहले बढ़ाकर 104% और फिर 125% कर दिया। 27 देशों के यूरोपीय संघ ने अमेरिका के 20% आयात शुल्क के जवाब में 25% आयात शुल्क का ऐलान कर दिया। लेकिन हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अभी तक खामोश हैं, जबकिऔरऔर भी

चीन ने सारे अमेरिकी आयात पर 34% शुल्क लगाकर जवाब दे दिया। फिर ट्रम्प ने पलटकर उस पर 50% टैरिफ बढ़ाकर 104% कर डाला। लेकिन जवाबी टैरिफ पर अभी तक भारत का कोई जवाब नहीं आया है। मोदी जी चुप हैं। देश के आम लोग तो औरंगजेब की कब्र के बाद वक्फ की जमीन के कब्जे में उलझे हैं। लेकिन कॉरपोरेट क्षेत्र टैरिफ युद्ध पर सरकार के पस्त रवैये से परेशान है। उसे लगता है कि अमेरिकाऔरऔर भी