लंबे दौर में अच्छे-बुरे का लॉजिक जरूर चलता होगा, लेकिन छोटे समय में शेयर बाज़ार में केवल एक लॉजिक चलता है। वो यह कि डिमांड ज्यादा है कि सप्लाई। इसी के जुड़ा है कि लालच ज्यादा है कि डर। अगर डिमांड या लालच का पलड़ा भारी है तो शेयर के भाव बढ़ेंगे। अगर डर के चलते लोग निकल रहे हैं और सप्लाई ज्यादा है तो शेयर के भाव गिरेंगे। समझदार ट्रेडर इसी नापतौल के बाद दांव चलतेऔरऔर भी

देश की बीमा नियामक संस्था, आईआरडीए (इरडा) के चेयरमैन जे हरिनारायण को निजी बीमा कंपनियों के तौर-तरीकों पर सख्त एतराज है, खास उनके वितरण के मौजूदा ढर्रे पर। उनका कहना है कि निजी बीमा कंपनियों के वितरण खर्च का करीब 75 फीसदी हिस्सा ऑनबोर्डिंग यानी लिखत-पढ़त व कागज़ी खानापूरी में चला जाता है। कंपनियां इरडा द्वारा तय मैनेजमेंट लागत की सीमा तो पार कर गई है, लेकिन कमीशन के मामले में यह सीमा तय मानक से कमऔरऔर भी

किताबों से लेकर बिजनेस स्कूलों तक में पढ़ाया जाता है कि संभावनामय व मूलभूत रूप से मजबूत कंपनियों में ही निवेश करना चाहिए। यह भी कहा जाता है कि सस्ते में खरीदो और महंगे में बेचो। लेकिन सबसे अहम मुद्दा है यह पता लगाना कि कोई मजबूत संभावनामय कंपनी सस्ते में मिल रही है या नहीं। मित्रों! शायद आपसे दोबारा मिलने में थोड़ा वक्त लग जाए, इसलिए यहां कुछ सूत्र और कंपनियों के नाम फेंक रहा हूंऔरऔर भी

महीने भर पहले जब ओएनजीसी में सरकार के पांच फीसदी हिस्से को खरीदने का ठींकरा देश की सबसे बड़ी बीमा कंपनी एलआईसी के माथे पर फोड़ा गया था, तब बड़ा हल्ला मचा था कि इससे तो एलआईसी का हश्र भी किसी दिन यूटीआई जैसा हो जाएगा। लेकिन ताजा साक्ष्य इस बात की गवाही देते हैं कि एलआईसी ने भले ही ओएनजीसी के ऑफर फॉर सेल को सरकार के दबाव में बचाया हो। पर, वह खुद भी निवेशऔरऔर भी

सरकार ने बड़े स्पष्ट शब्दों में बीमा नियामक संस्था, आईआरडीए (इरडा) से कहा कि उसे बीमा कंपनियों के बीच मची आत्मघाती होड़ की प्रवृत्ति को रोकने के लिए तत्काल कदम उठाने होंगे। इधर कंपनियों में बाजार पकड़ने के चक्कर में कम प्रीमियम लेने की होड़ मची हुई है। वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने राजधानी दिल्ली में बुधवार को इरडा की 72वीं बोर्ड बैठक को संबोधित करते हुए कहा, “वाजिब अंडरराइटिंग को सुनिश्चित करना और प्रीमियम में कटौतीऔरऔर भी

15 मार्च 2012, चालू वित्त वर्ष 2011-12 की अंतिम तिमाही में एडवांस टैक्स की आखिरी किश्त देने की आखिरी तारीख। केंद्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड (सीबीडीटी) तो कई दिन बाद पूरे आंकड़े जारी करता है। लेकिन देश की आर्थिक राजधानी मुंबई से मिले शुरुआती संकेतों से पता चला है कि कॉरपोरेट क्षेत्र में ज्यादा टैक्स नहीं भरा है। जिन्होंने दिया है, उनमें बैंकिंग व बीमा कंपनियां सबसे आगे हैं। देश के सबसे बड़े बैंक, भारतीय स्टेट बैंक (एसबीआई)औरऔर भी

ब्रिटानिया इंडस्ट्रीज में निवेश की सलाह हमने सबसे पहले करीब नौ महीने पहले 15 जून 2010 को दी थी। उस वक्त यह शेयर बहुत उछलकूद मचा रहा था। महीने भर में ही 40 फीसदी से ज्यादा बढ़कर 445 रुपए पर पहुंच चुका था। इस समय भी इसमें तेज हरकत है। 10 फरवरी को इसने दिसंबर तिमाही के नतीजे घोषित किए, तब इसका बंद भाव 493.95 रुपए था। उसके बाद करीब एक महीने में यह 14.44 फीसदी बढ़करऔरऔर भी

ओएनजीसी का इश्यू भले ही पूरा सब्सक्राइब हो गया हो, लेकिन यह साफ तौर पर कई मोर्चों पर नाकाम रहा है। एक यह कि जिन एफआईआई को सरकार भारतीय शेयर बाजार का खुदा मानती है, उन्होंने 290 रुपए पर ओएनजीसी के प्रति कोई भरोसा नहीं जताया। वही एफआईआई, अगर सेंसेक्स 20,000 के ऊपर पहुंच जाए तो ओएनजीसी को 350 रुपए के मूल्य पर भी हाथोंहाथ ले लेंगे। लेकिन सच यही है कि उन्होंने सरकार की पेशकश परऔरऔर भी

समूचा जीवन बीमा उद्योग दस सालों में पहली बार प्रीमियम आय में आई कमी से भयंकर सदमे में आ गया है। गंभीर मंथन शुरू हो गया है कि आखिर चूक कहां से हो गई। ‘बैक टू बेसिक्स’ की चर्चाएं चलने लगी हैं। एक तरफ बताया जा रहा है कि भारत का जीवन बीमा बाजार 6.6 लाख करोड़ डॉलर का है जो देश के कुल जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) का करीब ढाई गुना है। वहीं, दूसरी तरफ हकीकतऔरऔर भी

बीमा कारोबार को निजी क्षेत्र के लिए खोले हुए दस साल से ज्यादा हो चुके हैं। लेकिन साधारण बीमा ही नहीं, जीवन बीमा तक में अभी तक सरकारी कंपनियों का दबदबा है। बीमा नियामक संस्था, आईआरडीए (इरडा) की तरफ से जारी ताजा आंकड़ों के मुताबिक चालू वित्त वर्ष 2011-12 में अप्रैल से दिसंबर तक के नौ महीनों में जहां साधारण बीमा में मिले प्रीमियम का 58.3 फीसदी सरकारी कंपनियों की झोली में गया है, वहीं जीवन बीमाऔरऔर भी