देश की बीमा नियामक संस्था, आईआरडीए (इरडा) के चेयरमैन जे हरिनारायण को निजी बीमा कंपनियों के तौर-तरीकों पर सख्त एतराज है, खास उनके वितरण के मौजूदा ढर्रे पर। उनका कहना है कि निजी बीमा कंपनियों के वितरण खर्च का करीब 75 फीसदी हिस्सा ऑनबोर्डिंग यानी लिखत-पढ़त व कागज़ी खानापूरी में चला जाता है। कंपनियां इरडा द्वारा तय मैनेजमेंट लागत की सीमा तो पार कर गई है, लेकिन कमीशन के मामले में यह सीमा तय मानक से कम है। कमीशन पूरी मैनेजमेंट लागत का एक हिस्सा है। इसका मतलब यह हुआ कि बीमा कंपनियों कमीशन की परवाह किए बगैर दूसरे मदों में ज्यादा खर्च कर रही हैं।
इरडा प्रमुख सोमवार को मुंबई में उद्योग संगठन एसोचैम द्वारा आयोजित छठे ग्लोबल बीमा सम्मेलन के उद्घाटन सत्र में बोल रहे थे। इस सम्मेलन का विषय ठहराव के शिकार भारतीय बीमा उद्योग में ‘गॉड पार्टिकल’ की तलाश है। लेकिन हरिनारायण ने कहा कि यहां क्या गॉड पार्टिकल खोजा जाएगा, जबकि पूरे सम्मेलन के 14 मुद्दों में से मात्र दो मुद्दे ही उपभोक्ता से संबंधित हैं। उनका कहना था कि आज जरूरत सिर्फ इस बात की नहीं है कि ग्राहक के सामने आसान उत्पाद पेश किए जाएं, बल्कि ग्राहक तक ‘वैल्यू’ पहुंचाई जानी चाहिए। ग्राहक को लगना चाहिए कि बीमा पॉलिसी खरीदकर उसे कुछ खास हासिल हो रहा है।
उन्होंने इस हकीकत को रेखांकित किया कि साल 2000 में बीमा उद्योग को खोले जाने के बारह साल बाद भी जीवन बीमा कारोबार में तकरीबन 80 फीसदी हिस्सा सरकारी बीमा कंपनी एलआईसी का है। आखिर ऐसा क्यों है? हरिनारायण ने इस संबंध में बैंकिंग क्षेत्र के अनुभव का हवाला दिया। नब्बे के दशक में बैंकिंग में एसबीआई का दबदबा था। वह जमा पर 11 फीसदी ब्याज देता था, जबकि ऋण पर 14 फीसदी ब्याज लेता था। निजी बैंक आए तो उन्होंने ग्राहकों को 11.5 फीसदी ब्याज देना शुरू किया और ऋण 13.5 फीसदी पर देने लगे। इस तरह निजी बैंकों ने धीरे-धीरे अपना धंधा और साख दोनों जमा ली। लेकिन निजी बीमा कंपनियां अभी तक ऐसा नहीं कर सकी हैं। उनका कहना था कि 2008 के बाद से बीमा कंपनियां ग्राहकों की अविश्वसनीयता का शिकार हो गई हैं। लोगों को उनकी पॉलिसियों पर भरोसा ही नहीं रह गया है।
बीमा के वितरण तंत्र पर उनका कहना था कि देश में इस समय करीब 38 लाख बीमा एजेंट हैं। इनमें से बहुत सारे निष्क्रिय होंगे। फिर भी यह संख्या बहुत ज्यादा है। ब्रिटेन जैसे विकसित देश तक में बीमा एजेंटों की संख्या कुछ हज़ार है। समस्या यह है कि भारत में एजेंट एक ही बीमा कंपनी के उत्पाद बेच सकता है। यहां तक कि बैंक-एश्योरेंस के तहत भी कानूनी सीमा यह है कि कोई भी बैंक जीवन व साधारण बीमा के लिए एक-एक कंपनी के उत्पाद बेच सकता है। बैंक चाहें तो इससे निजात पाने के लिए अलग से सब्सिडियरी के रूप में बीमा ब्रोकिंग कंपनी खोल सकते हैं। उनका कहना था कि देश में बंधे हुए एजेंट का सिस्टम खत्म किया जाना चाहिए। उन्होंने बताया कि इरडा ने राज्यों में ‘लीड इंश्योरर’ की व्यवस्था लागू करने का प्रस्ताव उद्योग के बीच के चर्चा के लिए जीवन बीमा परिषद और साधारण बीमा परिषद के पास भेजा है। इसे लागू करने से बीमा उत्पादों के वितरण का खर्च कम हो सकता है।
इधर निजी बीमा कंपनियों की तरफ से नई पॉलिसियों के बारे में ‘यूज एंड फाइल’ की व्यवस्था की मांग की जा रही है। यानी, बीमा कंपनियां पहले बाज़ार में अपनी पॉलिसी ले आएं। फिर एतराज होने पर इरडा के कहे अनुसार उसे बदल लें। इस पर हरिनारायण का कहना था कि भारत में नई पॉलिसियों की मंजूरी की व्यवस्था अपेक्षाकृत आसान है। उन्होंने जोर देते हुए कहा कि, “बीमा कोई बिस्किट का ब्रांड नहीं है जिसे बाजार में उतारकर परखा जाए।” हरिनारायण ने अपनी रौ में देश में साझेदार के रूप में आई विदेशी बीमा कंपनियों को भी नहीं बख्शा। उन्होंने कहा कि इन विदेशी कंपनियों के पास अनेक देशों के कामकाज का अनुभव है। लेकिन लगता है कि ये भारत में झटपट मुनाफा कमाने के फेर में आई हैं। उन्होंने अपने ही बिजनेस मॉडल का पालन नहीं किया है। उनकी कमाई पॉलिसियों के सरेंडर चार्ज के बल पर हो रही है।
सम्मेलन में अपने संबोधन के बाद अलग से मीडिया से बात करते हुए इरडा प्रमुख हरिनारायण ने कहा कि बीमा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) की सीमा बढ़ाने की जरूरत है। अभी यह 26 फीसदी है, जिसे काफी समय से 49 फीसदी करने की कोशिश हो रही है। इससे संबंधित एक विधेयक भी संसद में लाया जा चुका है। हरिनारायण ने बताया कि अधिकांश बीमा कंपनियां इस समय कैश की समस्या झेल रही हैं। एफडीआई की सीमा बढ़ाने से उनको राहत मिल सकती है। बीमा नियामक इरडा की 2011 की सालाना रिपोर्ट के मुताबिक देश के जीवन बीमा उद्योग ने 2010-11 ने कुल मिलाकर 2657 करोड़ रुपए का शुद्ध लाभ कमाया था, जबकि साधारण बीमा उद्योग ने इस दौरान 102 करोड़ रुपए का घाटा उठाया था। नोट करने की बात यह है कि देश में पिछले कुछ सालों के दौरान स्वास्थ्य और मोटर बीमा का धंधा ही बढ़ा है और ये दोनों ही क्षेत्र बीमा कंपनियों के लिए घाटे का सबब बन गए हैं।