लंबे दौर का लॉजिक छोटे में खोटा

लंबे दौर में अच्छे-बुरे का लॉजिक जरूर चलता होगा, लेकिन छोटे समय में शेयर बाज़ार में केवल एक लॉजिक चलता है। वो यह कि डिमांड ज्यादा है कि सप्लाई। इसी के जुड़ा है कि लालच ज्यादा है कि डर। अगर डिमांड या लालच का पलड़ा भारी है तो शेयर के भाव बढ़ेंगे। अगर डर के चलते लोग निकल रहे हैं और सप्लाई ज्यादा है तो शेयर के भाव गिरेंगे। समझदार ट्रेडर इसी नापतौल के बाद दांव चलते हैं।…

दरअसल, शेयरों के भाव मूलतः दो चीजों से तय होते हैं। एक, कंपनी का प्रति शेयर लाभ (ईपीएस) कितना है। दो, इस लाभ के लिए हम उसे कितना भाव देते हैं। ईपीएस का वास्ता देश के जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) से है, अर्थव्यवस्था की समग्र हालत से है। जबकि उसका भाव हमारे मूड से जुड़ा है। अगर हम लालच से ग्रस्त हैं तो ज्यादा भाव देने को तैयार होंगे यानी उसका पी/ई (हर एक रुपए के शुद्ध लाभ पर लगाया जानेवाला दाम) ज्यादा होगा। वहीं हमारे मन पर डर हावी रहा तो हम कम भाव देंगे यानी, उसका पी/ई कम होगा। लंबे समय में कंपनी का लाभ/ईपीएस ही उसके शेयर का मूल्य तय करता है। लेकिन कुछ दिनों या महीनों में हमारा डर या लालच उसे गिराता-उठाता है। एक बात जाने लें कि कोई भी इंसान डर या लालच से परे नहीं है और, संस्थाओं के निवेश का फैसला भी इंसान ही करते हैं।

आप कहेंगे कि यहां हमारा मतलब कौन? हम तो शेयर बाज़ार से पल्ला झाड़े पड़े हैं। सही बात है। इसलिए इस ‘हम’ और ’हमारा’ में शामिल सारे लोगों की शिनाख्त जरूरी है। सबसे ऊपर आते हैं संस्थागत निवेशक। इसमें दो श्रेणियां हैं विदेशी सस्थागत निवेशक (एफआईआई) और घरेलू संस्थागत निवेशक (डीआईआई)। एफआईआई का मतलब तो नाम से ही जाहिर है। सरकार इनको खींचने की हरचंद कोशिश में लगी है क्योंकि उसे लगता है कि इसी से देश के चालू खाते के खाते (सीएडी) को कम किया जा सकता है। डीआईआई में एलआईसी जैसी अनेक बीमा कंपनियां और यूटीआई जैसे तमाम म्यूचुअल फंड आते हैं।

पूंजी बाजार नियामक, सेबी के आंकड़ों के अनुसार 2013 में एफआईआई अभी तक इक्विटी बाज़ार में कुल 1042.19 करोड़ डॉलर (56,218.20 करोड़ रुपए) लगा चुके हैं जिसमें से 194.33 करोड़ डॉलर प्राइमरी बाज़ार (नई इश्युओं) और 847.76 करोड़ डॉलर सीधे शेयर बाज़ार में लगा है। जनवरी 2003 से दिसंबर 2012 तक के दस सालों की बात करें तो भारतीय इक्विटी बाज़ार में एफआईआई का निवेश 11,062.5 करोड़ डॉलर रहा है। इन्हीं दस सालों में डीआईआई का निवेश 232.8 करोड़ डॉलर रहा है। इस तरह भारतीय बाज़ार में एफआईआई का निवेश भारतीय निवेशक संस्थाओं का 47.5 गुना है।

आज हालत यह है कि भारतीय शेयर बाज़ार का 22 फीसदी स्वामित्व एफआईआई के पास है, जबकि डीआईआई का स्वामित्व केवल 3 फीसदी है। इसलिए डीआईआई के बेचने से बाज़ार पर खास फर्क नहीं पड़ता, वहीं एफआईआई बेचने का फैसला कर लें तो बाज़ार को तगड़ा झटका लगता है। इसी तरह डीआईआई के खरीदने से नहीं,  एफआईआई के खरीदने से बाज़ार कुलांचे मारने लगता है।

इस तरह संस्थागत निवेशकों के पास हमारे बाज़ार का 25 फीसदी स्वामित्व है। बताते हैं कि बाकी बचे 75 फीसदी में से 65 फीसदी मालिकाना कंपनियों के प्रवर्तकों, उनके साथ गलबहियां मिलाकर चले रहे ऑपरेटरों और एचएनआई (हाई नेटवर्थ इंडीविजुअल्स) का है। प्रवर्तक ऑपरेटरों से सौदेबाज़ी कर सड़ी से सड़ी कंपनी के शेयर आकाश तक पहुंचा देते हैं और अच्छी-खासी कंपनियों के शेयरों का भट्ठा बैठा देते हैं। यह कड़वा सच है अपने शेयर बाज़ार का। एचएनआई भी बराबर ऑपरेटरों और प्रवर्तकों के टेढ़े-सीधे संपर्क में रहते हैं।

बाकी बचा 10 फीसदी हिस्सा तो उसमें प्रोफेशनल निवेशक, प्राइवेट इक्विटी, वेंचर कैपिटल, लंबे व छोटे समय के निवेशक, लंबे व छोटे समय के ट्रेडर, हेज फंड और इंडेक्स फंड शामिल हैं। इन्हीं में हम आप जैसे करीब दो फीसदी रिटेल निवेशक शामिल हैं। इन्होंने पिछले पांच-दस सालों में निवेश के चक्कर में, सीधे भी और म्यूचुअल फंडों के जरिए भी, इतना नुकसान झेला है कि दूध का जला छाछ भी फूंककर पीने लगा है।

दोस्तों! 1992 में मैं अमर उजाला अखबार के कानपुर दफ्तर में बिजनेस डेस्क का इंचार्ज था। वह हर्षद मेहता की चढ़ाई का दौर था। उस दौरान मैं बीसियों लोगों से मिला जो महीने में 10-20 हज़ार रुपए आराम से किसी ब्रोकर के साथ बैठकर कमा लेते थे। वे निवेश नहीं, ट्रेडिंग करते थे। आज भी वही मंत्र है। जो रिटेल निवेशक निवेश के चक्कर में पड़ेंगे, उन्हें बाज़ार में बैठे उस्ताद लोग पचा जाएंगे। म्यूचुअल फंडों की तो बुनावट ही ऐसी है कि उनके अपने लाव-लश्कर की तो मौज हमेशा रहेगी, जबकि निवेशकों का धन वे सोखते रहेंगे। उनकी यह हालत क्यों है, यह कभी बाद में खुलकर बताएंगे आपको।

अभी तो बस इतना समझ लीजिए कि हमें शेयर बाज़ार में उस्तादों को मात करना है। बड़ों की चाल को समझकर उनके ही हिस्से का लाभ बटोर लेना है। हमें शेयर बाज़ार में गीदड़ की मौत नहीं मरना, बल्कि शेर के साथ शिकार करना है। जिन बड़े-बड़े दिग्गजों ने रिटेल निवेशकों को चरका पढ़ाकर जेब भरी है, हमें उन्हीं के स्तर पर खड़े होकर उनकी जेब ढीली करनी है। तू डाल-डाल तो मैं पात-पात का खेल यहां चलेगा। लेकिन यह खेल बराबरी का होगा। शेर और बकरी का नहीं। घोड़े और घास का नहीं।

किसी भी व्यापार में लाभ का एक ही सूत्र है। थोक में खरीदो, रिटेल में बेचो। बड़े-बड़ों को मात देनेवाले हमारे व्यापारी बंधु भी शेयर बाज़ार की ट्रेडिंग में मात खा जाते हैं क्योंकि उन्हें नहीं पता कि यहां थोक में माल कब बिकता है और रिटेल की खरीदारी कब चलती है। अर्थकाम के जरिए हम यह विद्या आपको सिखाएंगे। बड़ी महंगी शिक्षा है इसकी है। ऑनलाइन ट्रेडिंग एकेडमी (ओटीएस) इसकी पूरी ट्रेनिंग के करीब 3.50 लाख रुपए लेती है। वहीं उससे जुड़े कुछ लोग तीन दिन पढ़ाने के लिए 21,000 रुपए लेते हैं। हम आपको निरंतर इसकी व्यावहारिक ट्रेनिंग देंगे। धीरे-धीरे, बिना किसी ओवरडोज़ के।

अंत में इस हफ्ते के चार कारोबारी दिनों की समीक्षा। सोमवार को बताया गया एशियन पेंट्स 4900 के लक्ष्य से अभी दूर है। 4715 तक जाकर लौट आया। बुधवार को बताया गया टाटा मोटर्स अगले ही दिन अपने लक्ष्य 282 के ऊपर पहुंच गया। गुरुवार का टीसीएस अगले मंगल तक अपना लक्ष्य पकड़ सकता है। आइशर मोटर्स में शॉर्ट सेलिंग का रंग अभी तक नहीं निखरा। मंगल को बताया इंडसइंड बैंक 402.15 रुपए से 455.70 तक की पेंग (13.31 फीसदी) मार चुका है। कुल मिलाकर इस बार चार दिनों में 12 शेयरों में ट्रेडिंग की सलाह दी। इनमें से दो को पकड़ने में चूक हुई है। बाकी की दशा-दिशा दुरुस्त रही। आगे आपका सहयोग बना रहा तो ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’  की यात्रा हम सभी साथ-साथ चलकर यकीकन पूरी कर लेंगे। आमीन…

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