भारतीय रेल के जिन जनरल डिब्बों और लोकल उपनगरीय ट्रेनों में देश के बूढ़े, बच्चे, महिलाएं और युवा जानवरों की तरह सफर करते हैं, सरकार का मानना है कि उससे उसे सबसे ज्यादा घाटा हो रहा है और इनके किरायों में वृद्धि करना अब अपरिहार्य हो गया है।
इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के अनुसार, रेलवे बोर्ड के पूर्व सदस्य (ट्रैफिक) वीनू एन माथुर का कहना है यात्री किरायों को बढ़ाए बगैर रेलवे के घाटे को संभाल पाना बहुत मुश्किल है क्योंकि कोचों की परिचालन लागत हर साल बढ़ती जा रही है। वे बताते हैं कि तत्काल टिकट पर प्रीमियम लेने का सिलसिला इस घाटे को कुछ हद तक पूरा करने के लिए शुरू किया गया था। लेकिन यह पर्याप्त नहीं निकला। उनके मुताबिक अनारक्षित जनरल डिब्बे और स्लीपर क्लास भारतीय रेल के घाटे के लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार हैं। नौ साल से इन श्रेणियों के यात्री किरायों में कोई वृद्धि नहीं की गई है। पिछली बार इनका किराया 2002-03 के रेल बजट में बढ़ाया गया था।
इसके अलावा महानगरों की उपनगरीय सेवाओं के टिकट पर भारी सब्सिडी होने से भी रेलवे को ज्यादा नुकसान हो रहा है। बीते साल अकेले मुंबई, कोलकाता व चेन्नई की लोकल ट्रेनों से हुआ घाटा 2214 करोड़ रुपए का है। साथ ही फल व सब्जियों, प्राकृतिक खाद, बीड़ी की पत्तियों, बांस, कागज व कपास को बहुत ही मामूली मालभाड़ा लिया जाता है, जिससे रेलवे का घाटा बढ़ता जा रहा है।
बता दें कि तृणमूल कांग्रेस के नेता और ममता बनर्जी की जगह रेल मंत्री बने दिनेश त्रिवेदी पिछले दो महीनों में तीन बार यात्री किरायों में वृद्धि की वकालत कह चुके हैं। हालांकि उन्होंने गुरुवार, 17 नवंबर को भोपाल में संवाददाताओं से बातचीत के दौरान कहा, “यात्री किरायों में तत्काल वृद्धि की कोई योजना नहीं है। लेकिन हमने प्रस्तावित किरायों का पूरा चार्ट तैयार कर लिया है। इसे सांसदो के साथ ही संपादकों जैसे मीडियाकर्मियों से चर्चा के बाद लोकतांत्रिक तरीके से लागू किया जा सकता है।”
लेकिन इतना साफ है कि अगले रेल बजट में सामान्य किरायों में बढ़ोतरी की पूरी गुंजाइश है। सूत्रों के मुताबिक यह वृद्धि 8-12 फीसदी हो सकती है। रेल मंत्रालय के पास उपलब्ध अद्यतन आंकड़ों के अनुसार वित्त वर्ष 2009-10 में भारतीय रेल का घाटा 14,977 करोड़ रुपए रहा है। इसके बाद के वित्त वर्ष 2010-11 के वास्तविक आंकड़े अभी जुटाए जा रहे हैं। अनुमान है कि यह घाटा कुछ हजार करोड़ रुपए और बढ़ गया होगा।
रेल मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी का कहना है, “बीते वित्त वर्ष 2010-11 के लिए घाटे का संशोधित अनुमान 13,300 करोड़ रुपए रहा है। लेकिन साल के अंत तक पूरे आंकड़े आ जाने के बाद यह निश्चित रूप से बढ़ जाएगा क्योंकि हर साल यह घाटा औसतन 3000 करोड़ रुपए बढ़ जाता है। इसलिए असली चुनौती अगले साल आनेवाली है।” उक्त अधिकारी का कहना कि जीआरपी (गवर्नमेंट रेलवे पुलिस) जैसी ‘सामाजिक सेवाएं’ भी भारतीय रेल का घाटा बढ़ा रही हैं।
गौतलब है कि भारतीय रेल कुल 10,500 ट्रेनें चलाती है जिनसे हर दिन करीब 2.2 करोड़ यात्री सफर करते हैं। लेकिन रेलवे की आय का करीब 70 फीसदी हिस्सा मालभाड़े से आता है। बाकी 30 फीसदी में यात्री किराए से लेकर उसके अपने उपक्रमों से मिलनेवाली आय शामिल है। सवाल उठता है कि जिन जनरल कोचों और लोकल ट्रेनों में क्षमता से तकरीबन दस गुना यात्री सफर करते हैं, उनसे अगर सामान्य. से दस गुना किराया मिलने पर भी रेलवे को घाटा हो रहा है तो किराया 8-12 फीसदी बढ़ाने से यह कैसे पूरा हो सकता है? क्या भारत सरकार की रेल आम आदमी से अमानवीय यात्रा की भी ज्यादा कीमत वसूलना चाहती है? हां, सुविधाएं बेहतर हो जाएं तो गरीब से गरीब आदमी भी राजी-खुशी ज्यादा किराया दे देगा।
महगाई और गरीबी के बीच की लकीर को आकडों के सहारे दिखाने की बेहतरीन कोशिश है यह. बहुत बढ़िया,