पहले जब तक गांव से ज्यादा जुड़ाव था, नौकरीपेशा तबके को जीवन बीमा की जरूरत नहीं लगती थी। भरोसा था कि जमीन-जायदाद के दम पर हारी-बीमारी से लेकर बुढ़ापे तक का इंतजाम हो जाएगा। लेकिन गांव से रिश्ता टूटता गया और ज्यादातर जोतों का आकार घटकर दो-ढाई एकड़ से कम रह गया तो अब हर कोई जीवन बीमा की सोचने लगा है। मगर, आंख पर पट्टी बांधकर। जैसे, मेरे एक हिंदी पत्रकार मित्र हैं। अंग्रेजी-हिंदी दोनों भाषाओंऔरऔर भी

देश की बीमा नियामक संस्था, आईआरडीए (इरडा) के चेयरमैन जे हरिनारायण को निजी बीमा कंपनियों के तौर-तरीकों पर सख्त एतराज है, खास उनके वितरण के मौजूदा ढर्रे पर। उनका कहना है कि निजी बीमा कंपनियों के वितरण खर्च का करीब 75 फीसदी हिस्सा ऑनबोर्डिंग यानी लिखत-पढ़त व कागज़ी खानापूरी में चला जाता है। कंपनियां इरडा द्वारा तय मैनेजमेंट लागत की सीमा तो पार कर गई है, लेकिन कमीशन के मामले में यह सीमा तय मानक से कमऔरऔर भी

महीने भर पहले जब ओएनजीसी में सरकार के पांच फीसदी हिस्से को खरीदने का ठींकरा देश की सबसे बड़ी बीमा कंपनी एलआईसी के माथे पर फोड़ा गया था, तब बड़ा हल्ला मचा था कि इससे तो एलआईसी का हश्र भी किसी दिन यूटीआई जैसा हो जाएगा। लेकिन ताजा साक्ष्य इस बात की गवाही देते हैं कि एलआईसी ने भले ही ओएनजीसी के ऑफर फॉर सेल को सरकार के दबाव में बचाया हो। पर, वह खुद भी निवेशऔरऔर भी

सरकार ने बड़े स्पष्ट शब्दों में बीमा नियामक संस्था, आईआरडीए (इरडा) से कहा कि उसे बीमा कंपनियों के बीच मची आत्मघाती होड़ की प्रवृत्ति को रोकने के लिए तत्काल कदम उठाने होंगे। इधर कंपनियों में बाजार पकड़ने के चक्कर में कम प्रीमियम लेने की होड़ मची हुई है। वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने राजधानी दिल्ली में बुधवार को इरडा की 72वीं बोर्ड बैठक को संबोधित करते हुए कहा, “वाजिब अंडरराइटिंग को सुनिश्चित करना और प्रीमियम में कटौतीऔरऔर भी

होना यह चाहिए था कि निजी क्षेत्र की जीवन बीमा कंपनियां ऐसी होड़ देती हैं कि ग्राहक सरकारी कंपनी एलआईसी को छोड़कर उनकी तरफ दौड़े चले आते। लेकिन साल 2000 में जीवन बीमा कारोबार को खोलने के बाद बराबर हो रहा है इसका उल्टा। बीमा नियामक संस्था, आईआरडीए (इरडा) के ताजा आंकडों के मुताबिक फरवरी 2012 तक एलआईसी की कुल गैर-एकल प्रीमियम वाली व्यक्तिगत पॉलिसियों की संख्या 2,65,37,802 हो गई है। यह संख्या फरवरी 2011 तक 2,53,60,881औरऔर भी

सहारा इंडिया परिवार पर वित्तीय क्षेत्र के दो नियामकों, रिजर्व बैंक और सेबी के बाद तीसरे नियामक आईआरडीए (इरडा) की भी भृकुटि टेढ़ी हो गई है। उसने पिछले साल 11 अगस्त को समूह की जीवन बीमा कंपनी, सहारा लाइफ इंश्योरेंस को कारण बताओ नोटिस जारी किया था। इसके जवाब और 13 दिसंबर को हुई निजी सुनवाई के बाद इरडा ने कंपनी को कुल 23 इल्जांमों में से केवल तीन में दोषी पाया है और इसके लिए कुलऔरऔर भी

समूचा जीवन बीमा उद्योग दस सालों में पहली बार प्रीमियम आय में आई कमी से भयंकर सदमे में आ गया है। गंभीर मंथन शुरू हो गया है कि आखिर चूक कहां से हो गई। ‘बैक टू बेसिक्स’ की चर्चाएं चलने लगी हैं। एक तरफ बताया जा रहा है कि भारत का जीवन बीमा बाजार 6.6 लाख करोड़ डॉलर का है जो देश के कुल जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) का करीब ढाई गुना है। वहीं, दूसरी तरफ हकीकतऔरऔर भी

बीमा कारोबार को निजी क्षेत्र के लिए खोले हुए दस साल से ज्यादा हो चुके हैं। लेकिन साधारण बीमा ही नहीं, जीवन बीमा तक में अभी तक सरकारी कंपनियों का दबदबा है। बीमा नियामक संस्था, आईआरडीए (इरडा) की तरफ से जारी ताजा आंकड़ों के मुताबिक चालू वित्त वर्ष 2011-12 में अप्रैल से दिसंबर तक के नौ महीनों में जहां साधारण बीमा में मिले प्रीमियम का 58.3 फीसदी सरकारी कंपनियों की झोली में गया है, वहीं जीवन बीमाऔरऔर भी

देश की सबसे बड़ी और एकमात्र सरकारी जीवन बीमा कंपनी, एलआईसी (भारतीय जीवन बीमा निगम) के 55 साल के इतिहास में शायद यह पहली बार हुआ है कि उसे बीमा नियामक संस्था, आईआरडीए (इरडा) की लताड़ खानी पड़ी है। इरडा ने मृत्यु दावों में लेटलतीफी के खिलाफ एलआईसी को कारण बताओ नोटिस जारी किया था जिस पर उसने 17 अक्टूबर को एलआईसी के कार्यवाहक चेयरमैन डी के मेहरोत्रा व कार्यकारी निदेशक के गणेश के साथ आमने-सामने बातऔरऔर भी

एलआईसी संशोधन विधेयक को अगले हफ्ते पहली अगस्त से शुरू हो रहे संसद के मानसून सत्र में पेश किया जाएगा और अब संसद की वित्त संबंधी स्थाई समिति में सारी आपत्तियां दूर हो जाने के बाद उम्मीद है कि इसे आसानी से पारित भी करा लिया जाएगा। यह विधेयक पहली बार 2009 में लोकसभा में पेश किया गया था। लेकिन उस समय लोकसभा भंग हो जाने के बाद इसका मामला अटक किया। विधेयक में लंबे समय सेऔरऔर भी