भारत दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन चुका है। पांच साल में हर हाल में अमेरिका व चीन के बाद तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएगा। फिर भी विदेशी पोर्टफोलियो निवेशक (एफपीआई) हमारे शेयर बाज़ार से भाग क्यों रहे हैं? अचम्भे की बात यह भी है कि जून 2022 से सितंबर 2024 तक जब भारतीय शेयर बाज़ार में जबरदस्त तेज़ी का दौर था, जब सेंसेक्स करीब-करीब 59% बढ़ गया, जब घरेलू निवेशक संस्थाओं (डीआईआई) ने कैशऔरऔर भी

शेयर बाज़ार में विदेशी पोर्टफोलियो निवेशकों (एफपीआई) पर यह कहावत बखूबी लागू होती है कि गंजेड़ी यार किसके, दम लगाकर खिसके। एफपीआई का चरित्र ही ऐसा है कि कोई देश उन पर भरोसा नहीं कर सकता। वे वहीं और तभी तक निवेश करते हैं, जब तक उन्हें मुनाफा मिलता है। हालांकि निवेश में खटाखट नहीं, बल्कि दो-चार साल की सोचकर चलते हैं। सरकारी प्रचार और आंकड़ों की परवाह नही करते। इधर जब से उन्हें भारतीय अर्थव्यवस्था केऔरऔर भी

सेबी ने छोटे निवेशकों को बचाने के लिए फ्यूचर्स व ऑप्शंस का एक फ्रेमवर्क घोषित किया है जिसमें छह खास उपाय किए गए हैं। इंडेक्स डेरिवेटिव्स का कॉन्ट्रैक्ट साइज़ ₹5 लाख से बढ़ाकर ₹15 लाख, ऑप्शंस का प्रीमियम पहले से ले लेना, साप्ताहिक डेरिवेटिव सौदों में फेरबदल, पोजिशन लिमिट की इंट्रा-डे मॉनिटरिंग, एक्सपायरी के दिन विभिन्न एक्सपायरी के सौदों की पोजिशन को ऑफसेट करने की सुविधा खत्म और शॉर्ट ऑप्शंस सोदों पर अतिरिक्त 2% ईएलएम या एक्सट्रीमऔरऔर भी

अपने यहां शेयर बाज़ार में डेरिवेटिव या कहें तो फ्यूचर्स व ऑप्शंस ट्रेडिंग को लेकर जैसा उन्माद छाया हुआ है, वैसा दुनिया के किसी भी देश में नहीं है। दुनिया के सबसे बड़े स्टॉक एक्सचेंजों में बाज़ार पूंजीकरण के लिहाज से भारत का नंबर अमेरिका, चीन, जापान व हांगकांग के बाद पांचवां है। लेकिन अपना एनएसई लगातार पांच सालों से दुनिया का सबसे बड़ा डेरिवेटिव एक्सचेंज बना हुआ है। स्थिति यह हो गई है कि बाज़ार मेंऔरऔर भी

शेयर बाज़ार में रिटेल निवेशक अगर म्यूचुअल फंड की इक्विटी स्कीमों के जरिए ज्यादा पहुंच रहे हैं, नियमित एसआईपी कर रहे हैं तो यह एक स्वस्थ सिलसिला है। इससे वे भारत की विकासगाथा का हिस्सा बन रहे हैं। हालांकि इसमें भी रिस्क है, लेकिन यह रिस्क म्यूचुअल फंड स्कीमों के प्रोफेशनल मैनेजर और उनकी टीम संभालती रहती है। मगर, रिटेल निवेशकों का इंट्रा-डे ट्रेड और एफ एंड ओ, खासकर ऑप्शंस ट्रेडिंग में कूदना उनके लिए ही नहीं,औरऔर भी

सरकार और सेबी दोनों दिखा रहे हैं कि वे शेयर बाज़ार में रिटेल निवेशकों की बढ़ती दुर्दशा से चिंतित हैं, खास तौर पर फ्यूचर्स व ऑप्शंस से उन्हें दूर रखना चाहते हैं। लेकिन उनके सारे उपाय महज जुबानी जमाखर्च हैं। दरअसल, वे नहीं चाहते कि आम निवेशक शेयर बाज़ार की इंट्रा-डे या एफ एंड ओ ट्रेडिंग से दूर हो जाएं क्योंकि ऐसा हो गया तो बाज़ार में सक्रिय मगरमच्छों के मुंह का निवाला छिन जाएगा और वेऔरऔर भी

फटाफट लाभ कमाने की लालच में देश के लाखों नहीं, करोड़ों निवेशक शेयर बाज़ार पर टूटे पड़े हैं। बीएसई की वेबसाइट के मुताबिक पंजीकृत निवेशकों की संख्या 19.32 करोड़ हो चुकी है। निवेश व ब्रोकरेज फर्म मोतीलाल ओसवाल फाइनेंशियल सर्विसेज़ की एक ताज़ा रिपोर्ट के मुताबिक देश की लिस्टेड कंपनियों में रिटेल निवेशकों या आम घरों का स्वामित्व 21.5% पर पहुंच चुका है। अमेरिका को छोड़ दें तो दुनिया की अन्य प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं में लिस्टेड कंपनियों मेंऔरऔर भी

सब हल्ला मचा रहे हैं कि देश में ऋण-जमा या लोन-डिपॉजिट अनुपात (एलडीआर) घट गया है। लेकिन कोई नहीं बता रहा कि इसकी सबसे प्रमुख वजह यह है कि रिजर्व बैंक ने काफी कम मुद्रा निर्माण किया है। बीते वित्त वर्ष 2023-24 में उसके केवल 0.6 लाख करोड़ रुपए की नयी मुद्रा बनाई है, जबकि ठीक पिछले तीन वित्त वर्षों में 2019-20 से 2022-23 तक 20 लाख करोड़ रुपए की नयी मुद्रा सृजित की थी। रिजर्व बैंकऔरऔर भी

बैंकों में डिपॉजिट के घटने की क्या वजहें हो सकती हैं? आम लोगों पर दोष मढ़ देना बड़ा आसान है कि बैंकों में अपनी बचत रखने के बजाय वे उसे अब शेयर बाज़ार व म्यूचुअल फंड में लगा रहे हैं। लेकिन ज़मीनी हकीकत यह है कि जो लोग शेयर बाज़ार व म्यूचुअल फंड में निवेश कर रहे हैं, उनमें से ज्यादातर ऐसे युवा हैं जो बैंकों में कभी धन रखते ही नहीं थे। बैंकों में पारम्परिक रूपऔरऔर भी

एक तरफ विकसित भारत का सपना। दूसरी तरफ लोगों की घटती जमा और बढ़ते उधार। एचडीएफसी बैंक की रिसर्च रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में प्रति व्यक्ति आय के संदर्भ में उधार व जीडीपी के अनुपात की तुलना एशिया के अन्य देशों से करें तो यह अनुपात चीन तो छोड़िए थाईलैंड और मलयेशिया जैसे देशों से भी कम है। साथ ही जिस तरह के कड़े लिक्विडिटी कवरेज अनुपात (एलसीआर) की पेशकश रिजर्व बैंक ने कीऔरऔर भी