इसे बढ़ी हुई ब्याज दरों का असर कहें या औद्योगिक सुस्ती का नतीजा, लेकिन आंकड़े गवाह हैं कि इस साल औद्योगिक क्षेत्र को बैंकों से मिले ऋण में अभी तक पिछले साल के मुकाबले 55,138 करोड़ रुपए कम बढ़त हुई है। चालू वित्त वर्ष 2011-12 में 4 नवंबर तक बैंकों द्वारा दिया गया गैर-खाद्य ऋण या दूसरे शब्दों में मैन्यूफैक्चरिंग व उपभोक्ता क्षेत्र को दिया गया ऋण 2,25,211 करोड़ रुपए बढ़ा है, जबकि बीते वित्त वर्ष 2010-11 की समान अवधि में यह 2,80,349 करोड़ रुपए बढ़ा था। इस तरह ऋण में बढ़त इस बार 19.67 फीसदी घट गई है।
रिजर्व बैंक के ताजा आंकड़ों के अनुसार चालू वित्त वर्ष में 4 नवंबर 2011 तक सभी अनूसूचित बैंकों द्वारा दिया गया कुल ऋण 41,80,474 करोड़ रुपए का है। इसमें से खाद्य ऋण या भारतीय खाद्य निगम व अन्य सरकारी एजेंसियों को अनाजों की खरीद के लिए दिया गया ऋण 77,464 करोड़ रुपए है और बाकी 41,03,011 करोड़ गैर-खाद्य ऋण है। खाद्य ऋण बीते वित्त वर्ष की इसी अवधि में 5259 करोड़ रुपए बढ़ा था, जबकि इस साल 13,181 करोड़ रुपए बढ़ गया है। वहीं गैर-खाद्य ऋण की बढ़त घट गई है।
अगर जमा की बात करें तो बैंकों की कुल जमा 4 नवंबर को खत्म पखवाड़े में 56,54,106 करोड़ रुपए रही है। इसमें से चालू व बचत खाते जैसी डिमांड डिपॉजिट में 5,64,735 करोड़ रुपए थे। यह रकम इस साल अप्रैल के बाद से 76,971 करोड़ रुपए घट गई है। दूसरी तरफ इसी दौरान सावधि जमा या टाइम डिपॉजिट की रकम में 5,23,107 करोड़ रुपए का शानदार इजाफा हुआ है। इस जमा में बैंकों के पास अभी कुल 50,89,371 करोड़ रुपए हैं।
जाहिर-सी बात है कि ब्याज दरें बढ़ने की वजह से लोगबाग अपनी रकम बचत खाते में रखने के बजाय सावधि जमा में डालने लगे हैं। दूसरी तरफ उन्होंने बैंकों से ऋण लेना कम कर दिया है। असल में आम ग्राहक ही नहीं, पूरा कॉरपोरेट क्षेत्र इस समय भयंकर दबाव से गुजर रहा है। रुपए की कमजोरी ने आयात का खर्च तो बढ़ाया ही है, तमाम कंपनियों को विदेशी मुद्रा के नुकसान में भी डाल दिया है।
शेयर सूचकांक इस साल करीब 20 फीसदी गिर चुके हैं, जबकि डूबत ऋण बढ़ते जा रहे हैं। कंपनियां, खासकर छोटे उद्यमी समय पर कर्ज नहीं लौटा पा रहे हैं। यही नहीं, कंपनियां बड़ा निवेश करने से बच रही हैं। उद्योग संगठन सीआईआई (कनफेडरेशन ऑफ इंडियन इंडस्ट्री) की मुख्य अर्थशास्त्री बिदिशा गांगुली का कहना है, “औद्योगिक धीमापन निश्चित रूप से तात्कालिक हिचकी नहीं है। वैश्विक समस्याएं तो अपनी जगह हैं, हमारी घरेलू चिंताएं भी काफी ज्यादा गंभीर हैं। सबसे बड़ी चिंता यह है कि प्रमुख कंपनियां निवेश व पूंजी खर्च में कमी ला रही है।”
2010-11 में हमारी आर्थिक विकास दर 8.5 फीसदी रही थी। लेकिन रिजर्व बैंक ने इस साल के लिए आर्थिक विकास का अनुमान 8 फीसदी से घटाकर 7.6 फीसदी कर दिया है। इसी हफ्ते अंतरराष्ट्रीय ब्रोकरेज फर्म मैक्वारी ने अगले वित्त वर्ष 2012-13 के लिए भारत की आर्थिक वृद्धि का अनुमान घटाकर 6.9 फीसदी कर दिया। उसने इसकी वजह नीतिगत सुधारों की कमी को बताया है।
दूसरी तरफ मुद्रास्फीति की चिंता सभी को सताए जा रही है क्योंकि मार्च 2010 के बाद से 13 बार ब्याज दरें बढ़ाने के बावजूद मुद्रास्फीति पर लगाम नहीं लग सकी है। अक्टूबर में यह 9.73 फीसदी रही है, जबकि सितंबर में 9.72 फीसदी थी। साथ ही हुआ यह है कि औद्योगिक विकास की दर सितंबर में घटकर मात्र 1.81 फीसदी रह गई है।