कागज़ का पतला पन्ना भी अगर दो फोल्ड का दो फोल्ड करते रहा जाए तो 42 बार ऐसा करने पर वह परत-दर-परत इतना मोटा हो जाएगा कि धरती से चांद तक से भी ऊपर चला जाएगा। जी हां, यह गणना आप खुद करके देख सकते हैं। अमूमन कागज़ के पन्ने की मोटाई 0.1 मिमी होती है। एक्सेल शीट पर 0.1*2^42 का हिसाब निकालें तो परिणाम आता है 4,39,804.65 किलोमीटर, जबकि धरती से चांद की दूरी है 3,84,400औरऔर भी

सबसे बड़ा सवाल यह है कि अमेरिका अगर टैपरिंग या बॉन्ड खरीदने की रफ्तार नवंबर महीने से धीमी करता है तो भारत पर क्या असर पड़ेगा। सीधी-सी बात है कि विदेशी निवेशक हमारे बॉन्ड और शेयर बाज़ार से निकलने लगेंगे। इससे देश का विदेशी मुद्रा भंडार कम होगा। साथ ही जो डॉलर अभी 75 रुपए का मिल रहा है, वह हो सकता है कि 78 रुपए का मिलने लगे। इससे हमें विदेशी ऋणों की अदायगी पर ज्यादाऔरऔर भी

अमेरिकी सरकार के बांड दुनिया में सबसे सुरक्षित माने जाते हैं क्योंकि उनमें डिफॉल्ट का रिस्क शून्य होता है। इन बांडों पर ब्याज दर बढ़ते ही निवेशक शेयर बाजार जैसे सबसे ज्यादा रिस्क वाले माध्यम से निकलकर इनकी तरफ भागते हैं। बांड में ज्यादा निवेश का मतलब अमेरिकी सरकार पर ऋण का बढ़ते जाना। इससे निवेश का तो नहीं, लेकिन सिस्टम का रिस्क बढ़ जाता है। इंस्टीट्यूट ऑफ इंटरनेशनल फाइनेंस के मुताबिक दुनिया भर में चढ़े ऋणऔरऔर भी

अमेरिका में बांड की कम खरीद से ब्याज दरें और ज्यादा बढ़ने लगेंगी। वहां के दस साल के सरकारी बांडों पर यील्ड की दर इस साल पहले ही 0.9% से बढ़कर 1.69% हो चुकी है। जब एफपीआई हमारे बांडों व स्टॉक्स से निकलने लगेंगे तो हमारा विदेशी मुद्रा भंडार हल्का होने लगेगा। तब पता चलेगा कि हम जिस भंडार पर इतरा रहे हैं, वह दरअसल रेत के रेगिस्तानी टीले जैसा है। वैसे भी इधर केंद्र सरकार केऔरऔर भी

विदेशी निवेश खासकर, विदेशी पोर्टफोलियो निवेश (एफपीआई / एफआईआई) का शुद्ध मकसद भारत जैसे देशों के वित्तीय बाज़ार से झटपट ज्यादा कमाकर फुर्र हो जाना है। वे कतई इसकी परवाह नहीं करते कि उनके अचानक निकल जाने से उस देश के वित्तीय बाज़ार और खासकर उसकी मुद्रा पर कितना प्रतिकूल असर पड़ेगा। पिछली बार अमेरिका के केंद्रीय बैंक, फेडरल रिजर्व ने दिसंबर 2013 में 85 अरब डॉलर के बजाय 75 अरब डॉलर के बांड खरीदने शुरू किए।औरऔर भी