18 फरवरी, शुक्रवार को यूटीआई एसेट मैनेजमेंट कंपनी के चेयरमैन व प्रबंध निदेशक यू के सिन्हा पूंजी बाजार नियामक संस्था, सेबी के नए चेयरमैन बनने जा रहे हैं। लेकिन लगता है कि उनके स्वागत की तैयारियों में सेबी ने अभी से ही म्यूचुअल उद्योग के प्रति अपना नजरिया बदलना शुरू कर दिया है। कम से कम वह यह दिखाने की कोशिश में है कि उसने हमेशा म्यूचुअल फंड उद्योग का भला सोचा है और अब भी उसके विस्तार के बारे में सोच रही है।
बता दें कि समूचे म्यूचुअल फंड उद्योग ने अगस्त 2009 में निवेशक की रकम से कमीशन काटने या एंट्री लोड पर सेबी के बैन लगाने के कदम को बहुत-ही नकारात्मक माना था। इस विरोध में यूटीआई म्यूचुअल फंड के प्रमुख यू के सिन्हा भी शामिल रहे हैं। समूचे उद्योग का कहना था कि एंट्री लोड खत्म हो जाने से डिस्ट्रीब्यूटर म्यूचुअल फंड स्कीमों में दिलचस्पी नहीं लेंगे और उद्योग का विस्तार रुक जाएगा। हालांकि इसका बहुत असर नहीं हुआ। लेकिन हल्ला तो खूब मचाया ही गया।
सेबी के कार्यकारी निदेशक के एन वैद्यनाथन ने दो दिन पहले मंगलवार की शाम मुंबई में आयोजित एक समारोह में कहा कि भारतीय म्यूचुअल फंड उद्योग अगले पांच सालों में बड़े आराम से एक लाख करोड़ डॉलर (45 लाख करोड़ रुपए) की आस्तियां (एयूएम या एसेट अंडर मैनेजमेंट) हासिल कर सकता है, बशर्ते वह ग्राहकों या निवेशकों के प्रति ज्यादा संवेदनशील हो जाए। उनका कहना था कि म्यूचुअल उद्योग को नई पहल करनी होगी और ग्राहक के सामने सरल समाधान पेश करने होंगे। बता दें कि अभी म्यूचुअल फंड उद्योग का एयूएम 6.75 लाख करोड़ रुपए के करीब बै।
वैद्यनाथन का यह भी कहना था कि एंट्री लोड का अध्याय अब बंद हो चुका है। उसे दोबारा नहीं खोला जा सकता। उन्होंने बताया कि अगस्त 2009 में एंट्री लोड खत्म किए जाने के बाद से लेकर अब निवेशकों ने म्यूचुअल फंड डिस्ट्रीब्यूटरों को सीधे कमीशन न देकर कम से कम 2000 करोड़ रुपए बचाए हैं। सेबी के आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार अगस्त 2009 से दिसंबर 2010 के बीच बचत की यह सांकेतिक रकम 2028.26 करोड़ रुपए बनती है। यह गणना पहले लागू 2.25 फीसदी कमीशन के आधार पर की गई है।
असल में सेबी चेयरमैन सी बी भावे से लेकर पूरी संस्था की सोच रही है कि जब 3000 से ज्यादा स्कीमों के बावजूद म्यूचुअल फंड उद्योग निवेशकों को नहीं खींच पा रहा है तो समस्या उसके तौर-तरीकों और काबिलियत में है न कि एंट्री लोड में। गौरतलब है कि सितंबर 2009 से सितंबर 2010 के बीच म्यूचुअल फंडों की इक्विटी स्कीमों में रिटेल व एचएनआई (हाई नेटवर्थ इंडीविजुअल) निवेशकों के फोलियो की संख्या 4.09 करोड़ से घटकर 3.89 करोड़ रह गई है। हालांकि इसी दौरान ऋण-स्कीमों में उनका फोलियो 30.3 लाख से बढ़कर करीब 40 लाख हो गया है।
सेबी के कार्यकारी निदेशक वैद्यनाथन का कहना है कि म्यूचुअल फंड उद्योग को आगे बढ़ने के लिए निवेशकों के सामने ऐसे उत्पाद पेश करने चाहिए जो बैंक डिपॉजिट जैसे कम रिस्क वाले हों और सुरक्षित रिटर्न देते हों। इसके बाद उन्हें बैंक डिपॉजिट से थोड़ा ज्यादा रिटर्न वाले उत्पाद पेश करने चाहिए। और, तब जाकर इक्विटी स्कीमों से निवेशकों को जोड़ा जाना चाहिए। उनका कहना था कि अगर म्यूचुअल फंड उद्योग अगले तीन से पांच सालों तक यह तरीका अपनाए तो उसमें जबरदस्त विकास हो सकता है।
वैद्यनाथन ने कहा कि अभी तो म्यूचुअल फंड के निवेशक ज्यादातर वही हैं जो सीधे शेयर बाजार में निवेश करते हैं। अगर उद्योग को इस दायरे को तोड़ना है तो उसने अपने संभावित ग्राहकों के साथ भरोसे पर आधारित रिश्ता बनाना होगा। इसके लिए सबसे पहले ग्राहकों को म्यूचुअल फंड की अवधारणा से इस हद तक परिचित कराना होगा ताकि वे आराम से इसे जज्ब कर सकें। अभी तो 2008 में शेयर बाजार की गिरावट से धक्का खाए निवेशक म्यूचुअल फंडों पर यकीन करने से ही कतराते हैं।
म्यूचुअल फण्ड स्वयं इस स्थिति के ज़िम्मेदार हैं । मैं भावेजी से बिल्कुल सहमत हूँ । मैंने और मेरे कई जानने वालों ने भी देखा है कि प्लान तो बहुत हैं लेकिन उनकी रिटर्न किसी भी उचित बैंचमार्क की रिटर्न से बहुत कम होती है और वैरिएशन बहुत ज़्यादा जो म्यू. फण्ड के मूलभूत अर्थ के बिल्कुल विपरीत है । अगर निफ्टी एक अवधि में 2% बढ़े और उसमें वैरिएशन 5% हो तो किसी निफ्टी के शेयरों की बहुतायत से बने किसी फण्ड की उसी अवधि की रिटर्न 2% से ज़्यादा और एनएवी का वैरिएशन 3-4% या उससे भी कम होना चाहिए लेकिन होता उल्टा है ।
यह भी देखा गया है कि जब सेंसेक्स 5% बढ़्ता है तो एनएवी सिर्फ 1-2% बढ़्ती है लेकिन जब सेंसेक्स 5% घटता है तो एनएवी 7-8% घटती है । अगर आप दोनों समय के पोर्टफोलिओ पर निगाह रखें तो पाएंगे कि उसमें कोई फर्क़ नहीं है । ऐसा अच्छे और बड़े नाम वाले फण्ड्स में भी होता है । यह बात इशारा करती है कि फण्ड मैनेजरों द्वारा हेरा फेरी की जाती है ।