गंगोत्री से गंगा की धारा के साथ बहते पत्थर का ऊबड़-खाबड़ टुकड़ा हज़ारों किलोमीटर की रगड़-धगड़ के बाद शिव बन जाता है, मंगल का प्रतीक बन जाता है। आंख में ज़रा-सा कण पड़ जाए तो हम इतना रगड़ते हैं कि वह लाल हो जाती है। लेकिन सीप में परजीवी घुस जाए तो वह उसे अपनी लार से ऐसा लपटेती है कि मोती बन जाता है। ऐसे ही हैं हमारे रीति-रिवाज़ और त्योहार जो हज़ारों सालों की यात्राऔरऔर भी

दावाग्नि कितनी भी प्रबल हो, वह पेड़ों को तो जला डालती है, पर जड़ों को नहीं। लेकिन मीठी हवा सुलगा-सुलगाकर जड़ों को भी नष्ट कर देती है। कहा भी गया है कि धीमा ज़हर ज्यादा खतरनाक होता है।और भीऔर भी