शेयर बाजार में चल रही मायूसी ने पूंजी बाजार के दूसरे हिस्से प्राइमरी बाजार में भी सन्नाटा फैला दिया है। चालू वित्त वर्ष 2011-12 में पूंजी बाजार में उतरनेवाली 22 कंपनियों ने आईपीओ (शुरुआती पब्लिक ऑफर) लाने का इरादा ही छोड़ दिया है। इसके साथ ही बड़े निवेशकों को सीधे खींचनेवाले क्यूआईपी (क्वालिफाइड इंस्टीट्यूशनल प्लेसमेंट) बाजार में भी एकदम मुर्दनी छा गई है।
ब्रोकरेज फर्म एसएमसी ग्लोबल सिक्यूरिटीज के ताजा अध्ययन के मुताबिक जिन 22 कंपनियों ने शेयर बाजार की हालत को देखने हुए आईपीओ लाने की योजना टाल दी है, उन सभी ने साल पहले पूंजी बाजार नियामक संस्था, सेबी के मंजूरी ले ली थी। इनमें रीयल एस्टेट और बिजली क्षेत्र से जुड़ी कई कंपनियां शामिल हैं। इनमें कुछ प्रमुख नाम हैं – लोढ़ा डेलवपर्स, एम्बियंस रीयल एस्टेट, कुमार अर्बन डेवलपर्स, नेप्च्यून डेवलपर्स, रहेजा यूनिवर्सल, स्टरलाइट एनर्जी, जिंदल पावर, अवंता पावर। इसके अलावा रिलायंस इंफ्राटेल, ग्लेनमार्क जेनेरिक्स और गुजरात स्टेट पेट्रो ने भी अपने आईपीओ निरस्त कर दिए हैं।
एमएसी ग्लोबल सिक्यूरिटीज के रणनीतिकार व रिसर्च प्रमुख जगन्नाधम तुनगुंटला का कहना है कि आईपीओ बाजार की इस हालत से प्राइवेट इक्विटी फंडों पर भी बुरा असर पड़ेगा क्योंकि वे कंपनियों से निकल नहीं पाएंगे। ऐसी ही एक कंपनी है वन97 कम्युनिकेशंस जिसमें इनटेल, एसवीबी इंडिया व सैफ पार्टनर्स ने निवेश कर रखा है। ऐसी दूसरी कंपनी है माइक्रोमैक्स जिसमें टीए एसोसिएट्स, सेक्वोइया, सैंडस्टोन पार्टनर्स व मैडिसन इंडिया कैपिटल ने धन लगा रखा है। अब ये सभी प्राइवेट इक्विटी फर्में फंसकर रह गई हैं।
प्राइमरी बाजार की इस हालत ने क्यूआईपी बाजार को भी आगोश में ले लिया है। इस बार ऐसे प्लेसमेंट एकदम ठंडे पड़ गए हैं। इस साल जनवरी से सितंबर के बीच केवल छह क्यूआईपी हुए हैं, जबकि कैलेंडर वर्ष 2009 में 45 और कैलेंडर वर्ष 2010 में 53 क्यूआईपी इश्यू जारी किए गए थे। इस साल अभी तक क्यूआईपी से कुल 3344 करोड़ रुपए जुटाए गए हैं। यह बीते साल 2010 में क्यूआईपी से जुटाए गए 28,339 करोड़ रुपए से 88 फीसदी कम है। साल 2009 में तो क्यूआईपी से 32,631 करोड़ रुपए जुटाए गए। इस तरह इस साल के पहले छह महीनों में 2009 की दस फीसदी रकम भी नहीं जुटाई जा सकी है।
तुनगुंटला के मुताबिक इससे सबसे बड़ी दिक्कत यह हो रही है कि कॉरपोरेट क्षेत्र की तमाम योजनाएं धन के अभाव में ठप हो गई हैं। उनका विस्तार थम गया है। वे अगर ऋण से जरूरत पूरा करना चाहें तो वहां भी उन्हें ज्यादा ब्याज देना पड़ रहा है। इसका असर औद्योगिक उत्पादन सूचकांक (आईआईपी) और जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) के कमजोर आंकड़ों के रूप में सामने आएगा। ऐसे में लगता यही है कि आर्थिक सुस्ती का शिकंजा हम पर कसता जा रहा है।