खज़ाना-खाना, किस-किस के नाम पर!
बजट का शोर थम चुका है। विदेशी निवेशकों को जो सफाई वित्त मंत्री से चाहिए थी, वे उसे पा चुके हैं। अब शांत हैं। निश्चिंत हैं। बाकी, अर्थशास्त्रियों का ढोल-मजीरा तो बजता ही रहेगा। वे संदेह करते रहेंगे और चालू खाते का घाटा, राजकोषीय घाटा, सब्सिडी, सरकार की उधारी, ब्याज दर, मुद्रास्फीति जैसे शब्दों को बार-बार फेटते रहेंगे। उनकी खास परेशानी यह है कि धीमे आर्थिक विकास के दौर में वित्त मंत्री जीडीपी के आंकड़े को 13.4औरऔर भी
खैरात नहीं, यहां चक्कर मुनाफे का
किसी जमाने में सेठ लोग धर्मशालाएं और कुएं खुदवाकर खैरात का काम करते थे। लेकिन आज कोई कंपनी किसी कल्याण के लिए नहीं, बल्कि शुद्ध रूप से मुनाफा कमाने के लिए बनती है। उसके काम से अगर किसी का भला होता है तो यह उसका बाय-प्रोडक्ट है, असली माल व मकसद नहीं। वो तो ऐन केन प्रकरेण ग्राहक या उपभोक्ता की जेब से नोट लगाने के चक्कर में ही लगी रहती है। बड़े-बड़े एमबीए और विद्वान उसेऔरऔर भी
दूर तक मार मिर्ज़ा इंटरनेशनल की
कोई मानें या न माने, हम अब भी कहीं न कहीं दलितों व मुस्लिमों के प्रति सवर्ण और हिंदू मानसिकता से ग्रस्त हैं। नहीं तो क्या वजह है कि जिस मिर्ज़ा इंटरनेशनल का धंधा पिछले तीन सालों में 14.06 फीसदी और शुद्ध लाभ 115.60 फीसदी की सालाना चक्रवृद्धि दर से बढ़ा हो, उसका शेयर मार्च 2008 से लेकर मार्च 2012 तक घूम-फिरकर 20 रुपए के आसपास अंकड़ा क्यों पड़ा है? वैसे, इधर अचानक इस स्टॉक में सक्रियताऔरऔर भी
इतने कृपालु क्यों?
दलित के नाम पर आप क्यों सत्ता पाना चाहती हैं बहनजी? जनता के नाम पर आप सरकार में क्यों आना चाहते हैं नेताजी? जनता पर यूं मुफ्त कृपा बरसाने के पीछे की असली नीयत तो खोलिए जनाब!और भीऔर भी
दलाल या दलित
तंत्र औपनिवेशिक किस्म का हो तो सत्ता से बाहर के सारे लोग या तो दलाल होते हैं या दलित। दलित कोई जाति नहीं। सवर्ण, अवर्ण कुछ नहीं। विकास के अवसरों से जो भी वंचित हैं, वे सभी दलित हैं।और भीऔर भी