प्रधानमंत्री के पद पर बैठे नरेंद्र मोदी की निगाहें रिजर्व बैंक के खज़ाने पर गड़ गईं। लेकिन उस पर हाथ साफ करना आसान नहीं था क्योंकि तब तक की वैधानिक व्यवस्थाएं इसकी इजाज़त नहीं देती थीं। उसी तरह जैसे परशुराम के उंगली दिखाने पर लक्ष्मण पलटकर कहते हैं, “इहां कुम्हड़ बतिया कोउ नाहीं, जे तर्जनी देखि मरे जाहीं।” इससे पार पाने के लिए मोदी सरकार ने दिसंबर 2018 में रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर बिमल जालान की अध्यक्षता में छह सदस्यीय समिति बना दी। इस समिति के पांच अन्य सदस्य थे – उस समय के वित्त सचिव सुभाषचंद्र गर्ग, रिजर्व बैंक के पूर्व डिप्टी गवर्नर राकेश मोहन, रिजर्व बैंक के सेंट्रल बोर्ड के निदेशक भरत दोशी व सुधीर मांकड और रिजर्व बैंक के डिप्टी गवर्नर एन.एस. विश्वनाथन। समिति को अपनी रिपोर्ट 90 दिन के भीतर अप्रैल 2019 तक सौंप देनी थी। लेकिन मतभेदों के चलते उसे अगस्त 2019 के पहले हफ्ते में अंतिम रूप दिया गया। हालांकि रिपोर्ट में महीने भर पहले रिटायर हो चुके वित्त सचिव गर्ग के विरोधी विचारों को शामिल नहीं किया गया। रिजर्व बैंक के सेंट्रल बोर्ड ने यह रिपोर्ट 26 अगस्त 2019 स्वीकार की और अगले ही दिन केंद्र सरकार को ₹1,76,051 करोड़ का रिकॉर्ड लाभांश देने का ऐलान हो गया। पूरा देश चौंक गया। वैधानिक व्यवस्थाएं बदल चुकी थीं। मिशन हुआ पूरा, मोदी सरकार प्रसन्न। अब बुधवार की बुद्धि…
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