इंटरनेट के इस दौर ने जहां डाक पर लोगों की निर्भरता कम की है, वहीं डाक कर्मियों को शिकायत है कि अब उन्हें काम करने में न तो लोगों से पहले जैसी आत्मीयता मिलती है और न ही किसी तरह का आनंद। सब कुछ यंत्रवत हो गया है।
पिछले 21 साल से डाक बांटने वाले पोस्टमैन रघुनंदन गुप्ता ने बताया ‘‘पहले की बात और थी। लोगों को अपनी चिट्ठी का इंतजार रहता था। हम डाक लेकर जाते थे। जिस मोहल्ले में हमें डाक बांटना होता था वहां हमारी अच्छी जानपहचान हो जाती थी। कई बार तो हम ही चिट्ठी पढ़कर सुनाते थे। हमें इतना अपनापन मिलता था कि मत पूछिए। बुजुर्ग हमें साथ बिठा कर चाय पिलाते थे। अब तो डाक भी बहुत कम हो गई है और अपार्टमेंट के बाहर लगे लेटरबॉक्स में लिफाफा डाल दिया जाता है।’’
डाक विभाग में पोस्टमैन के पद पर अपनी सेवाएं देने के बाद सेवानिवृत्त हो चुके गोवर्धन लालजी कहते हैं ‘‘वह समय और था। हम कहने को डाकिया थे लेकिन तब हम लोगों के सुख-दुख के साथी होते थे। किसी के यहां निधन के समाचार का पत्र पहुंचाते समय हम भी दुखी हो जाते थे। अगर खुशी का पत्र ले जाते थे तो ईनाम भी मिलता था। इसके अलावा, त्योहारों पर हमें ईनाम मिलता था। इसे रिश्वत नहीं कहा जा सकता बल्कि यह केवल भावनाओं का प्रतीक होता था।’’
गोवर्धन कहते हैं ‘‘मैंने सारी उम्र साइकिल से डाक बांटी। ठंड हो, गर्मी हो या बरसात, मैं नहीं रूकता था। आज मेरे नाती पोते इंटरनेट पर चैटिंग करते हुए तुरत-फुरत बातचीत कर डालते हैं। चिट्ठी की कोई जरूरत ही नहीं बची। राखियां भेजने के लिए अलग से व्यवस्था होती है। लेकिन अब तो राखियां भी इंटरनेट से भेज दी जाती हैं। सब कुछ बदल गया।’’ (भाषा)