अगर कृषि भारत की आर्थिक नीति के केंद्र में होती तो आज गांव, किसान व खेती की हालत इतनी खराब नहीं होती। सस्टेनेबल फार्मिंग और केमिकल-फ्री नेचुरल खेती के जुमलों के बीच किसान खेती छोड़कर भागने को मजबूर नहीं होते। दिक्कत यह है कि उन्हें भागकर कहीं जाने की कोई ठौर ही नहीं मिल रही। इस सरकार ने पिछले दस साल में कृषि को खैरातखाना बना दिया है। बजट में कृषि व किसान कल्याण विभाग को आवंटित रकम ₹1,22,528.77 करोड़ है। इसमें से ₹60,000 करोड़ प्रधानमंत्री किसाना सम्मान निधि, ₹22,600 करोड़ ऋण के ब्याज में रियायत, ₹14,600 करोड़ फसल बीमा योजना, ₹6437.50 करोड़ प्रधानमंत्री अन्नदाता आय संरक्षण योजना या पीएम-आशा, ₹7553 करोड़ राष्ट्रीय कृषि विकास योजना और ₹7447 करोड़ कृषोन्नति योजना के लिए हैं। इस तरह किसानों के नाम पर आवंटित ₹1,18,637.50 करोड़ (कुल आवंटन का 96.82%) दरअसल खैरात के लिए हैं। इन योजनाओं की हालत अंधा पीसे, कुत्ता खाय वाली है। उसके ऊपर से प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना में 81.35 करोड़ गरीबों को प्रतिमाह पांच किलो मुफ्त राशन देने के लिए ₹2,05,250 करोड़ रखे गए हैं। ये धन किसानों नहीं, बल्कि उपभोक्ता या कहें तो चुनावी हित को ध्यान में रखकर मतदाताओं को बांटी गई रेवड़ी है। क्या गांवों के आसपास फसलों की ग्रेडिंग, प्रोसेसिंग, पैकेजिंग, गोदाम, ट्रांसपोर्ट व रिटेलिंग जैसे उद्यम खोलकर लाखों युवक-यवतियों को रोज़गार नहीं दिया जा सकता? अब शुक्रवार का अभ्यास…
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