जीडीपी का 4.6% रहेगा राजकोषीय घाटा, दुरुस्त है सरकार का हिसाब

वित्त वर्ष 2011-12 के लिए देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का बजट अनुमान है 89,80,860 करोड़ रुपए, जबकि वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी ने राजकोषीय घाटे का अनुमान रखा है 4,12,817 करोड़ रुपए। इस तरह नए वित्त वर्ष में वित्त मंत्री ने राजकोषीय घाटे को जीडीपी के 4.6 फीसदी तक सीमित रखने का मसूंबा बांधा है। लेकिन बहुतेरे जानकार व अर्थशास्त्री वित्त मंत्री के इस महत्वाकांक्षी लक्ष्य को शक की नजर से देखते हैं। हालांकि एनम सिक्यूरिटीज के प्रमुख वल्लभ भंसाली जैसे लोग भी हैं जो कहते हैं कि वित्त मंत्री इतनी बड़ी गड़बड़ी नहीं कर सकते। कुछ न कुछ तो इसका ठोस आधार होगा ही उनके पास।

बता दें कि राजकोषीय घाटा वह रकम होती है जो सरकार की पूंजी प्राप्तियों में उधार व अन्य देयताओं के रूप में गिनी जाती है। इसमें केंद्र सरकार के कैश बैलेंस का कम आहरण भी शामिल होता है। वित्त मंत्री इस बारे में कहते हैं कि जीडीपी का 4.6 फीसदी राजकोषीय घाटा 4,12,817 करोड़ रुपए बनता है। इसमें से सरकार की शुद्ध बाजार उधारी 3.43 लाख करोड़ रुपए होगी, जबकि 15,000 करोड़ रुपए छोटी अवधि के ट्रेजरी बिलों से जुटाए जाएंगे। इसके अलावा 14,500 करोड़ रुपए विदेशी सहायता से, 24,182 करोड़ रुपए लघु बचतों के एवज में जारी प्रतिभूतियों से और 10,000 करोड़ रुपए राज्य भविष्य निधियों से जुटाए जाएंगे।

इन्हें मिलाकर कुल रकम बनती है 4,06,682 करोड़ रुपए। फिर भी राजकोषीय घाटे में से बच गए 6135 करोड़ रुपए। यह रकम यूं पूरी होगी कि सरकार जहां कैश बैलेंस से 20,000 करोड़ रुपए का कम आहरण करेगी, वहीं अन्य प्राप्तियों में उसके खाते से 13,865 करोड़ निकलेंगे। इस तरह 20,000 करोड़ में से 13,865 करोड़ रुपए को घटाने से निकले 6135 करोड़ रुपए उसके राजकोषीय घाटे को भर देंगे। इस तरह राजकोषीय घाटे का गणित बराबर हो जाता है।

केंद्र सरकार चालू वित्त वर्ष में बाजार उधारी के 3.45 लाख करोड़ के लक्ष्य में से 3.35 करोड़ रुपए जुटा चुकी है। इसलिए नए वित्त वर्ष के 3.43 करोड़ की बाजार उधारी का लक्ष्य पूरा करने में उसे कोई दिक्कत नहीं आएगी। वैसे भी उसकी बाजार उधारी का प्रबंध रिजर्व बैंक इतने करीने से करता है कि यह काम बिना हल्ले-गुल्ले के पूरा हो जाता है। दूसरे, बैंकों व वित्तीय संस्थाओं को कानूनन अपने निवेश का निश्चित हिस्सा सरकारी बांडों में लगाना पड़ता है तो सरकार के लिए इस लक्ष्य को पूरा करना महज एक औपचारिकता होती है।

हां, इससे उद्योग जगत को बस एक शिकायत होती है कि ऋण बाजार में सरकार के उतरने से उसके लिए ऋण जुटाना कठिन हो जाता है। लेकिन तरलता प्रबंधन चूंकि रिजर्व बैंक देखता है। इसलिए वह सीआरआर (नकद आरक्षित अनुपात या रिजर्व बैंक के पास रखी जानेवाली बैंकों की नकद जमा) व एसएलआर (वैधानिक तरलता अनुपात या बैंकों की जमा का अनिवार्य रूप से सरकारी प्रतिभूतियों में लगनेवाला हिस्सा) में कमी कर सिस्टम में उपलब्ध रकम बढ़ाता रहता है।

इसके बाद बचे साधनों में ट्रेजरी बिल, विदेशी सहायता, लघु बचतों की रकम या राज्य भविष्य निधियों का हासिल करने में सरकार को कोई मुश्किल नहीं होती। इसलिए राजकोषीय घाटे की पूर्ति करने का हिसाब-किताब एकदम दुरुस्त है। मामला तब फंस सकता है जब इस घाटे की रकम ही बढ़ जाए और सरकार को राजस्व प्राप्तियों (कर राजस्व और कर-भिन्न राजस्व) से निर्धारित रकम न मिल पाए। या, उसका खर्च बजट अनुमान से बहुत ज्यादा बाहर निकल जाए।

सरकार द्वारा सकल कर राजस्व से 9,32,440 करोड़ जुटाना मुश्किल नहीं है क्योंकि यह व्यावहारिक वृद्धि के अनुमान पर टिका हुआ है। मुश्किल आ सकती है तो कर-भिन्न राजस्व या नॉन-टैक्स रेवेन्यू में। इस मद में रखे गए 1.25 लाख करोड़ रुपए में से 40,000 करोड़ रुपए तो सरकारी उपक्रमों के विनिवेश से आएंगे। बाकी 85,000 करोड़ का हिसाब-किताब भी दुरुस्त है। हां, बजट दस्तावेजों के अनुसार इसमें से 29,648 करोड़ रुपए अन्य कम्युनिकेशन सेवाओं से जुटाए जाएंगे। यह क्या है, इसका पूरा खुलासा नहीं होता।

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