उस्ताद तो निकल जाएंगे, फंसेंगे चेले

विदेशी संस्थागत निवेशक (एफआईआई) तो भारत में धंधा करने के लिए आए हैं। काम खत्म, पैसा हजम। कमाई हो गई, निकल लिए। उनके मूल देश में कुछ गड़बड़ हुई तो अपना आधार बचाने निकल पड़े। यूरोप-अमेरिका के मामूली से घटनाक्रम पर भी वे बावले हो जाते हैं। इसलिए जो निवेशक एफआईआई का अनुसरण करते हैं, वे यकीनन समझदार होने के बावजूद परले दर्जे की मूर्खता करते हैं। लेकिन माना जाता है कि एलआईसी या यूटीआई म्यूचुअल फंड जैसी घरेलू निवेशक संस्थाओं (डीआईआई) का पीछा करने में फायदा ही फायदा है क्योंकि उनके साथ ऐसी कोई विकलांगता नहीं है।

आम धारणा है कि बीमा कंपनियों व म्यूचुअल फंडों के फंड मैनेजर बहुत पहुंचे हुए उस्ताद होते हैं। लेकिन व्यवहार इसकी गवाही नहीं देता। वे वहां नौकरी करने बैठे हैं। भले ही उन्हें रिस्क मैनेजमेंट से लेकर फाइनेंस का किताबी ज्ञान हो, लेकिन वे भी हमारी तरह लालच व डर की भावनाओं में बहते रहे हैं। उनका तो धन भी अपना नहीं होता। चूंकि वो हमारा-आपका धन ही निवेश करते हैं, इसलिए उन्हें उससे खास मोह भी नहीं होता। हमें-आपको घाटा हो, इससे बीमा कंपनी या म्यूचुअल फंड की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ता।

एक बात गांठ बांध लें कि बीमा कंपनियां या म्यूचुअल फंड हमारे लिए काम नहीं करते। वे शुद्ध रूप से धंधा करने बैठे हैं। ये नए जमाने का धंधा है, जहां फसल के बजाय नोट काटे जाते हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो जिस बीमार को सबसे ज्यादा स्वास्थ्य बीमा की जरूरत होती है, उसे पॉलिसी देने से इनकार नहीं कर दिया जाता। उम्र के जिस पड़ाव पर बाल-बच्चों के लिए सबसे ज्यादा छोड़कर जाने की जरूरत होती है, उस पड़ाव पर प्रीमियम इतने ज्यादा नहीं होते। अगर ऐसा ही होता तो अपनी स्कीमों में निवेशकों को नुकसान कराने के बावजूद म्यूचुअल फंडों के अदने से अदने अधिकारी की तनख्वाह लाखों में नहीं होती, उनके दफ्तर इतने आलीशान नहीं होते।

बीमा कंपनियों या म्यूचुअल फंडों को चलानेवाली एसेट मैनेजमेंट कंपनियों के लिए अपना हित ही सर्वोपरि होता है। आप और आपकी ख्वाहिशें उनकी मुनाफा कमाने के इंजिन का ईंधन हैं। लेकिन क्या कीजिएगा! जमाना यही है। जमाने का दस्तूर यही है। हमें फिलहाल इसी में जीना है। लेकिन साथ ही यह भी तय है कि यह जमाना अनंत समय तक नहीं चलेगा। हर चीज की तरह इसका भी अंत होना है। इसलिए इस जमाने को झेलते हुए हमें अगले जमाने की तैयारियां भी बराबर करती रहनी चाहिए।

फिलहाल यह मानकर चलिए कि जितने भी संस्थागत निवेशक हैं, उनके अपने हित हैं जो हमारे-आप जैसे सामान्य निवेशकों से भिन्न होते हैं। वे बहुत सारी वजहों से अपना पोर्टफोलियो इधर-उधर करते हैं। उनके खरीदने-बेचने की वजहें अलग-अलग होती हैं, जिन्हें पता लगाना हमारे बाजार की मौजूदा स्थिति में मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है। इसके अलावा इन संस्थाओं में फ्रंट रनिंग चलती है। यानी, किसी भी सौदे से पहले संस्था के लोग पहले ही खरीद या बेच डालते हैं। हमारे पूंजी बाजार की थानेदार, सेबी ने हाल में ऐसे कुछ मामले पकड़े भी हैं। होता यह है कि संस्थाएं 100-200 या 1000-2000 नहीं, बल्कि एकमुश्त लाखों शेयर खरीदती हैं। उनकी बड़ी खरीद या बिक्री से फौरन भाव तेजी से ऊपर नीचे होते हैं। ऐसे में फ्रंट-रनर दो-चार दिन में ही नोट बना लेता है। यह गैर-कानूनी है। लेकिन जमकर चलता है। कभी-कभी दिखाने के लिए दो-चार लोगों को जिबह कर दिया जाता है।

असल में हम लोग भ्रमों में जीने के आदी हो गए हैं। सरकारी तंत्र भी इधर-उधर झाड़-फूंककर हमारे भ्रम को बनाए रखना चाहता है। लेकिन भ्रमों से निकले बिना न तो जिंदगी में असली सुख मिल सकता है, न ही धंधे व निवेश में हम कामयाब हो सकते हैं। कहा जाता है कि म्यूचुअल लंबे समय के लिए निवेश करते हैं। ज्यादातर फंड मैनेजर चार्ट बनाकर समझाते हैं कि कैसे लंबे समय तक रखा गया स्टॉक फायदा कराता है। लेकिन वे खुद व्यवहार में इस पर अमल नहीं करते। इसकी एक ताजा कहानी अंग्रेजी की निवेश पत्रिका मनीलाइफ ने छापी है। इसे पढ़िए। बहुत सारा भ्रम दूर हो जाएगा।

अंत में बस इतना कि महाभारत में एक सूक्ति है – धर्मस्य तत्वं निहितं गुहायाम् महाजनो येन गतः सः पन्थाः।। मतलब कि धर्म का मर्म बहुत गूढ़ है। ऐसे में महान या समाज में प्रतिष्ठित जन जिस राह को अपनाते हैं, वही अनुकरणीय है। लेकिन आज अगर आप शेयर बाजार में संस्थागत निवेशकों जैसे ‘महाजनो’ की राह पर चलने की कोशिश करेंगे तो आपको साक्षात विष्णु भी नहीं बचा पाएंगे।

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