देश में विकास की जो चकाचौंध दिखाई जा रही है, उसमें चमचमाते हवाई अड्डे और हाईवे ज़रूर दिख जाते हैं। लेकिन आए-दिन किसी की छत गिर रही होती तो कई कोई पुल टूट या सड़क धंस रही होती है। 10-11 साल में देश के इंफ्रास्ट्रक्चर को चमाचम हो जाना चाहिए था। लेकिन ऐसा क्यों है कि देश के पास नए संसद भवन के अलावा दिखाने को नया कुछ नहीं है? बड़ा सवाल यह है कि इस विकासऔरऔर भी

विकास के नाम पर कितना भ्रष्टाचार हो रहा है, इसकी खबरें उत्तर प्रदेश से लेकर मध्य प्रदेश, बिहार और महाराष्ट्र तक फैली हैं। कुछ महीने पहले उत्तर प्रदेश से खबर आई थी कि जल जीवन मिशन योजना में ₹31,300 करोड़ का घोटाला हो गया है। भ्रष्टाचार के आरोपों के बीच जल शक्ति मंत्रालय की ₹2.79 लाख करोड़ की मांग के सामने वित्त मंत्रालय ने केवल ₹1.25 लाख करोड़ देने का फैसला किया है। बिहार में नए-नए पुलोंऔरऔर भी

देश को विकास की चकाचौंध की तरफ दौड़ते एक दशक से ज्यादा हो गए। समय आ गया है कि देखें कि हम किसी मृग मरीचिका में तो फंसकर नहीं रह गए हैं? बढ़ते शेयर बाज़ार और डीमैट खातों को देखकर तो सचमुच लगता है कि विकास हुआ है। लेकिन शेयर बाज़ार तभी बढ़ता है जब वहां लिस्टेड कंपनियों के शेयरों की तरफ धन का प्रवाह बढ़ जाता है। इस धन का बड़ा हिस्सा विदेशी पोर्टफोलियो निवेशकों (एफपीआई)औरऔर भी

निवेश में हम अक्सर दो अतियों की तरफ भागते हैं। या तो एकदम आसान और पका-पकाया रास्ता तलाशते हैं जिसमें हमें कुछ न करना पड़े। बस किसी ने बता दिया और हमने खरीद लिया। बतानेवाला कोई दोस्त, वॉट्स-अप ग्रुप, ब्रोकर, बिजनेस चैनल का एनालिस्ट, अखबार या वेबपोर्टल का कॉलम तक हो सकता है। नहीं तो हम निवेश के एल्फा, बीटा, गामा और डेल्टा के चक्कर में ऐसे उलझ जाते हैं कि समय पर कोई फैसला नहीं करऔरऔर भी

शेखचिल्ली के बड़े-बड़े दावे। सारे के सारे खोखले, ज़मीन पर फिसड्डी। चाहे वो राष्ट्रीय सुरक्षा का मसला हो या अर्थव्यवस्था का। मोदी सरकार की 10-11 साल की कुल जमापूंजी यही है। वो समस्याएं सुलझाती नहीं। नई समस्याएं ज़रूर पैदा कर देती है। पिछले दशक में अर्थव्यवस्था में दोहरी बैलेंसशीट की समस्या थी। एक तरफ कॉरपोरेट क्षेत्र पर ऋण का बोझ ज्यादा ही बढ़ गया था। दूसरी तरफ बैंकों के एनपीए या डूबत ऋण काफी बढ़ गए थे।औरऔर भी