देश को विकास की चकाचौंध की तरफ दौड़ते एक दशक से ज्यादा हो गए। समय आ गया है कि देखें कि हम किसी मृग मरीचिका में तो फंसकर नहीं रह गए हैं? बढ़ते शेयर बाज़ार और डीमैट खातों को देखकर तो सचमुच लगता है कि विकास हुआ है। लेकिन शेयर बाज़ार तभी बढ़ता है जब वहां लिस्टेड कंपनियों के शेयरों की तरफ धन का प्रवाह बढ़ जाता है। इस धन का बड़ा हिस्सा विदेशी पोर्टफोलियो निवेशकों (एफपीआई) का है जो बहती गंगा में हाथ धोकर मुनाफा कमाने आए हैं। उन्हें कमाने से मतलब है, विकास से नहीं। शेयर बाज़ार में म्यूचुअल फंडों और बीमा कंपनियों के जरिए आम लोगों का धन भी लगता है। लेकिन इन घरेलू संस्थाओं और एफपीआई के बीच लेने और देने का खेल चलता है। एक खरीदता है तो दूसरा बेचता है। इनकी खरीद-बिक्री आपस में कटकर बराबर हो जाती है। फिर किसका धन है जिसके प्रवाह से शेयर बाज़ार चढ़ा है? आखिर विकास ने किन लोगों के पास इतना इफरात धन भर दिया है जो शेयर बाज़ार में आकर भावों में बवंडर मचा रहा है? दरअसल यह सरकारी ठेकों, दलाली व कृपा से बहा जनधन है जो बवाल मचाए हुए है। अब सोमवार का व्योम…
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