शेयर बाज़ार बढ़ता है। सेंसेक्स और निफ्टी बढ़ते हैं। लेकिन रिटेल निवेशक जहां भी हाथ डाले, घाटा ही खाता है। क्यों? इसलिए कि वो निवेश की अपनी कोई पद्धति या अनुशासन नहीं पकड़ता। बस, औरों की सुनता है। डिविडेंड डार्लिंग में बताते हैं कि चंबल फर्टिलाइजर्स का डिविडेंड यील्ड 5.26% है। नहीं बताते कि यह स्टॉक पांच सालों में 29 से 36 तक ही पहुंचा है। 4.4% का सालाना रिटर्न! दरअसल, मुनाफे के दो अहम पहलू हैं…औरऔर भी

सिद्धांत कहता है और सही कहता है कि किसी भी कंपनी के शेयर का मूल्य मूलतः दो चीजों से तय होता है। एक, भविष्य में उसके धंधे से होने वाला डिस्काउंटेड कैश फ्लो (शुद्ध लाभ) कितना रहेगा और दो, जोखिम-रहित आस्ति (सरकारी बांड) पर मिलने वाले रिटर्न की बनिस्बत शेयरधारक क्या रिस्क ले रहा है। स्टॉक का मूल्य या अंतर्निहित मूल्य खासतौर पर इन्हीं दो चीजों से तय होता है। लेकिन बाज़ार में उस स्टॉक का भावऔरऔर भी

मन को न संभाले तो हर ट्रेडर जुए की मानसिकता का शिकार होता है। मान लीजिए, नौ बार सिक्का उछालने पर टेल आए तो हममें से ज्यादातर लोग मानेंगे कि अगले टॉस में हेड आना पक्का है। जबकि वास्तविकता यह है कि पिछले नौ की तरह दसवें टॉस में भी हेड या टेल की संभावना 50-50% है। इसी मानसिकता में बार-बार नुकसान खाकर हम लंबा दांव खेल सब गंवा बैठते हैं। अब करें सही दांव की शिनाख्त…औरऔर भी

।।पॉल क्रुगमैन*।। हाल की आर्थिक दिक्कतों का एक सबक इतिहास की उपयोगिता के रूप में सामने आया है। इस बार का संकट जब उभर ही रहा था, तभी हार्वर्ड के दौ अर्थशास्त्रियों कारमेन राइनहार्ट और केनेथ रोगॉफ ने बड़े ही चुटीले शीर्षक – This time is different से एक जबरस्त किताब छपवाई। उनकी स्थापना थी कि संकटों के बीच काफी पारिवारिक समानता रही है। चाहे वो 1930 के दशक के हालात रहे हों, 1990 के दशक केऔरऔर भी

सौ कमाया। सौ गंवाया। रकम बराबर तो कमाने की खुशी और गंवाने का दुख बराबर होना चाहिए। लेकिन हम-आप जानते हैं कि सौ रुपए गंवाने की तकलीफ सौ रुपए कमाने की खुशी पर भारी पड़ती है। इसे निवेश की दुनिया में घाटे से बचने की मानसिकता कहते है। 100 गंवाने का दुख 200 कमाने के सुख से बराबर होता है। इसलिए स्टॉप-लॉस और लक्षित फायदे की लाइन छोटी-बड़ी होती है। मनोविज्ञान का खेल है ट्रेडिंग। अब आगे…औरऔर भी

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हर कोई अपने धन को अधिक से अधिकतम करना चाहता है। लेकिन कर कौन पाता है? किसान और ईमानदार नौकरीपेशा इंसान तो हर तरफ से दबा पड़ा है। अपने धन को अधिकतम कर पाते हैं एक तो नेता और नौकरशाह, जो हमारे द्वारा परोक्ष या प्रत्यक्ष रूप से दिए गए टैक्स की लूट और बंदरबांट में लगे हैं। वे अपनी हैसियत और पहुंच का फायदा उठाकर जनधन को जमकर लूटते हैं और देखते ही देखते करोड़पति सेऔरऔर भी