मांग-सप्लाई चले, पर न दिखे साफ

सिद्धांत कहता है और सही कहता है कि किसी भी कंपनी के शेयर का मूल्य मूलतः दो चीजों से तय होता है। एक, भविष्य में उसके धंधे से होने वाला डिस्काउंटेड कैश फ्लो (शुद्ध लाभ) कितना रहेगा और दो, जोखिम-रहित आस्ति (सरकारी बांड) पर मिलने वाले रिटर्न की बनिस्बत शेयरधारक क्या रिस्क ले रहा है। स्टॉक का मूल्य या अंतर्निहित मूल्य खासतौर पर इन्हीं दो चीजों से तय होता है। लेकिन बाज़ार में उस स्टॉक का भाव किसी दूसरी वस्तु की तरह मांग और सप्लाई से तय होता है।

आप पूछेंगे कि शेयर बाज़ार में सप्लाई क्या होती है? जवाब है किसी भी शेयर का फ्लोटिंग स्टॉक, जिसे कंपनी के कुल जारी शेयरों में से प्रवर्तकों के हिस्से के शेयरों को घटाकर निकाला जाता है। बीएसई और एनएसई किसी भी कंपनी के मार्केट कैप या बाज़ार पूंजीकरण (शेयरों की कुल संख्या X शेयर का मौजूदा भाव) के साथ-साथ फ्री फ्लोट मार्केट कैप का भी आंकड़ा देते हैं। मांग क्या है? उस शेयर को खरीदने की भूख। कितने लोग उसे खरीदने के लिए लालायित हैं।

किसी जिंस की तरह शेयरों की सप्लाई घटती-बढ़ती नहीं, बल्कि फिक्स्ड है। इसलिए उसे खरीदने की लालसा बढ़ते ही उसके भाव बढ़ जाते हैं। किसी शेयर को खरीदने की लालसा कितनी ज्यादा है, निवेशकों में कितनी भूख है उसे पाने की, यह उसके पी/ई अनुपात से जाहिर होता है। टाटा स्टील इस समय 80 के पी/ई पर ट्रेड हो रहा है, जबकि आलोक इंडस्ट्रीज़ मात्र 0.7 के पी/ई पर। एचडीएफसी बैंक का शेयर 24.02 के पी/ई अनुपात पर ट्रेड हो रहा है तो देना बैंक का पी/ई अनुपात मात्र 3.12 है। इसका मतलब यह नहीं निकाला जाना चाहिए कि देना बैंक का शेयर सस्ता है और वह कई गुना बढ़ सकता है क्योंकि, लोग क्या खरीदना चाहते हैं, यह हम अपनी इच्छा से नहीं तय कर सकते। अगर देना बैंक के पुछत्तर नहीं हैं तो वे अचानक कहीं आसमान से नहीं टपक पड़ेंगे।

कभी-कभी कंपनियां अपने शेयरों का भाव बढ़ाने के लिए बायबैक का सहारा लेती हैं, जिसके जरिए वे कुल जारी शेयरों की संख्या घटा देती हैं। वहीं बोनस शेयर जारी करने के बाद कुल शेयर उसी अनुपात में बढ़ जाते हैं और शेयरों का भाव गिर जाता है। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि पिछले चार सालों में अमेरिका का डाउ जोन्स सूचकांक अगर 8450 से 78.8 फीसदी बढ़कर 15,115 तक पहुंचा है तो इसमें कंपनी के लाभ का बहुत कम, और बायबैक का बहुत बड़ा योगदान रहा है।

असली सवाल यह है कि हम शेयरों की ट्रेडिंग करते वक्त ‘सप्लाई और डिमांड’ का कैसे इस्तेमाल कर सकते हैं? पहली बात ट्रेडिंग के संदर्भ में डिमांड और सप्लाई की अवधारणा आम अवधारणा से एकदम अलग है। यहां देखा जाता है कि बड़े निवेशकों  – बैंक, म्यूचुअल फंड व अन्य वित्तीय संस्थाओं की तरफ से कब बिकवाली होनी है और कब उनकी तरफ से खरीद आ रही है। उनकी बिकवाली को सप्लाई की स्थिति मानते हैं और उनकी खरीद को डिमांड की स्थिति मानते हैं। दुनिया भर में प्रोफेशनल ट्रेडर टेक्निकल एनालिसिस का इस्तेमाल रुझान और हालात को समझने के लिए करते हैं। लेकिन ट्रेड वे करते हैं डिमांड और सप्लाई के संतुलन को भांपकर।

एक बात गांठ बांध लें कि रिटेल निवेशकों के खरीदने या बेचने से शेयरों के भावों पर खास फर्क नहीं पड़ता। बड़े ऑपरेटरों और संस्थागत निवेशकों की चाल ही इन भावों की दशा-दिशा तय करती है। रिटेल निवेशक या ट्रेडर तभी अच्छी कमाई कर पाता है, जब वो इनकी पीठ पर सवारी करता है। इनकी दिशा भांपकर बहती गंगा में हाथ धोना ही कमाई की असली कला और विज्ञान है। सप्लाई, यानी बैंकों व संस्थागत निवेशकों की तरफ से बिकवाली शुरू होते ही शेयर गिरने लगते हैं और इस तरह सप्लाई ज़ोन में पहुंचने के बाद कई दिनों तक तेज़ी से गिरते हैं। वहीं गिरते-गिरते भाव उस स्तर तक पहुंच जाते हैं जहां से बैंक व संस्थागत निवेशक फिर से खरीदने लगते हैं। यहीं से वो स्टॉक डिमांड ज़ोन में प्रवेश कर जाता है।

डिमांड और सप्लाई ज़ोन को शेयरों के भाव को अलग-अलग अवधि (एक दिन, हफ्ता, महीना, तिमाही, साल आदि) के चार्ट से समझने की खास पद्धति है जिसे बहुत अभ्यास और बारीक व गहरे अध्ययन से पकड़ा जा सकता है। इस समय भारत में डिमांड और सप्लाई ज़ोन को सही तरीके से पढ़ानेवाले केवल तीन लोग हैं जो भारी फीस लेकर यह ‘विद्या’ चुनिंदा छात्रों को सिखाते हैं। मैं भी मुंबई में इनमें से एक का छात्र हूं। मेरा वादा है कि मैं इस ‘विद्या’ में महारत हासिल करते ही हिंदीभाषी समाज को यह मंत्र बहुत मामूली फीस में सिखाना शुरू कर दूंगा क्योंकि मुझे लगता है कि ज्ञान को उसके लागत मूल्य पर बिना किसी लाभ के सब तक पहुंचाना जरूरी है। और, मेरे काम से मेरे व मेरे परिवार का सामान्य जीवन-यापन का इंतज़ाम हो जाए तो यह काम करने से मुझे कोई नहीं रोक सकता।

अंत में एक बात और। किस दिन कितने शेयर खरीदे या बेचे गए, यानी उसका कितना वोल्यूम रहा, इससे डिमांड और सप्लाई की अवधारणा का सीधा वास्ता नहीं है। कारण, शेयर बाज़ार में अक्सर बनावटी वोल्यूम खड़ा किया जाता है। असली वोल्यूम वो होता है जो डिलीवर होता है। जैसे शुक्रवार को एनएसई में यूनिटेक के 2.16 करोड़ शेयरों के सौदे हुए, लेकिन इसमें से डिलीवरी केवल 53.94 लाख (24.92 फीसदी) शेयरों की हुई। दूसरे, हर खरीदने वाले के सामने उतने ही शेयर बेचनेवाला होता है। आपने सौ शेयर बेचे तो दूसरे ने सौ शेयर खरीदे, तभी वो सौदा पूरा होगा। इसमें वोल्यूम सौ शेयरों का गिना जाएगा, न कि दो सौ का।

टेक्निकल एनासिसिस में कुछ लोग यह भी देखते हैं कि भावों का उतार-चढ़ाव कितने वोल्यूम के हाथ हुआ है। लेकिन बनावटी वोल्यूम के माहौल में यह पैमाना अक्सर गलत हो जाता है। फिर, जब ज्यादा नोट बाज़ार में हों यानी लिक्विडिटी ज्यादा हो, तब भी टेक्निकल व फंडामेंटल एनालिसिस के आम नियम निरर्थक हो जाते हैं। भाव गिरे और वोल्यूम भी गिरा तो उसके लिए निगेटिव वोल्यूम सूचकांक (एनवीआई)। वोल्यूम बढ़ा और भाव  बढ़ा, उसके लिए पॉजिटिव वोल्यूम सूचकांक (पीवीआई)। शेयर खान अपने सॉफ्टवेयर, ट्रेड टाइगर की चार्ट पद्धति में ‘वोल्यूम प्लस’  के लाल व हरे रंग से बताता है कि वोल्यूम उस दिन बेचने का रहा है या खरीदने का। कुल मिलाकर बस इतना समझ लीजिए कि ट्रेडिंग से जुड़ी डिमांड-सप्लाई की धारणा का हर दिन होनेवाले वोल्यूम से सीधा लेना-देना नहीं है। साथ ही ट्रेडिंग के लिए वोल्यूम को पैमाना बनाना घाटे का सबब बन सकता है क्योंकि अपने यहां अक्सर झूठा वोल्यूम खड़ा किया जाता है।

हफ्ते में कैसा क्या रहा, इसकी समीक्षा आप खुद कर लें। आगे की यात्रा के लिए पिछली गलतियों से बराबर सीखते रहना जरूरी है। मैं खुद बराबर यह करता रहता हूं। आप भी ऐसा करें तो यह आपके ज्ञान, विकास और मुनाफे के लिए लाभकारी रहेगा।

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