छासठ साल कम नहीं होते बंद गांठों को खोलने के लिए। लेकिन नीयत ही न हो, सिर्फ साधना का स्वांग चल रहा हो तो कुंडलिनी मूलाधार में ही कहीं सोई पड़ी रहती है। आज़ादी के बाद देश की उद्यमशीलता को जिस तरह खिलना चाहिए था, वैसा नहीं हुआ। सच कहें तो सायास ऐसा होने नहीं दिया गया। उद्योगों को मंदिर मानने, हाइब्रिड बीजों से आई हरित क्रांति और अर्थव्यवस्था को खोलने के पीछे बराबर एक पराश्रयी सोचऔरऔर भी

सी-सॉ का खेल। तराजू के एक पलड़े पर डॉलर तो दूसरे पर रुपया। दो साल पहले जुलाई 2011 में डॉलर को बराबर करने के लिए पलड़े पर 44.32 रुपए रखने पड़ते थे। अब 61.22 रुपए रखने पड़ रहे हैं। इस तरह रुपया डॉलर के मुकाबले दो साल में 38.13 फीसदी हल्का हो चुका है। इस दौरान डॉलर खुद अपने देश में मुद्रास्फीति (उपभोक्ता मूल्य सूचकांक पर आधारित) के कारण जुलाई 2012 तक 1.7 फीसदी और उसके बादऔरऔर भी

आमतौर पर ग्वार की खेती करनेवाले किसान मार्च तक अपनी सारी फसल बाज़ार में उतार देते हैं। लेकिन इस साल उन्होंने खींच-खांच कर करीब डेढ़ महीने और इंतज़ार किया। जैसे ही उनकी फसल खलिहान से निकलकर बाज़ार में पहुंच गई, सरकार ने ग्वार और ग्वार गम की फ्यूचर ट्रेडिंग पर तेरह महीने पहले, मार्च 2012 से लगाया गया बैन उठा लिया। फॉरवर्ड मार्केट कमीशन (एफएमसी) के फैसले के बाद एमसीएक्स और एनसीडीएक्स ने मंगलवार, 14 मई 2013औरऔर भी

शेयर बाज़ार के मंजे हुए ट्रेडरों की बात अलग है। लेकिन उन लोगों के लिए, जिन्होंने शेयर बाज़ार में अभी-अभी ट्रेडिंग शुरू की होती है, स्टॉप लॉस लगते ही जैसे कलेजे से एक कतरा कटकर नीचे गिर जाता है। लगता है कि किसी ने सरे-राह जेब काट ली। हालांकि स्टॉप लॉस किसी भी ट्रेडर के जीवन का एक अपरिहार्य हिस्सा है। गिरते हैं घुड़सवार ही मैदान-ए-जंग में। लेकिन स्टॉप लॉस को लेकर मन में कोई खांचा फिटऔरऔर भी

जिस देश के खज़ाना मंत्री को यह न पता हो कि उसके 125 करोड़ निवासियों में से कितने करोड़पति हैं और वो इसके लिए अमीरों की सत्यवादिता पर भरोसा करता हो, उस देश के खज़ाने का भगवान ही मालिक है और तय है कि कर्ज पर उस देश की निर्भरता बढ़ती चली जानी है। दूसरे शब्दों में उसका राजकोषीय घाटा बढ़ते ही जाना है। फिर भी हमारे वित्त मंत्री या खज़ाना मंत्री पी चिदंबरम दावा करते हैंऔरऔर भी

सरकार नए निवेशकों को शेयर बाजार में खींचने के लिए बेताब है। वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने राजीव गांधी इक्विटी सेविंग्स स्कीम को और आकर्षक बना दिया है। अभी तक इस स्कीम में वे लोग ही निवेश कर सकते हैं, जिनकी सालाना आय 10 लाख रुपए या इससे कम है। लेकिन नए वित्त वर्ष 2013-14 से यह सीमा बढ़ाकर 12 लाख रुपए कर दी गई है। साथ ही अभी तक नियम यह है कि इस स्कीम काऔरऔर भी

ईमानदार अर्थव्यवस्था में लोग पूरा दम लगाकर कठिन कठोर मेहनत करते हैं क्योंकि उन्हें मेहनत का फल पाने का यकीन होता है। वे अपनी तरफ से कोई कोर-कसर नहीं छोड़ते। जोखिम उठाते हैं। मौकों को हाथ से नहीं जाने देते। अंततः कुछ अपने उत्पाद और सेवा के दम पर कामयाब होते हैं तो कुछ किस्मत के दम पर। लेकिन कामयाबी और नाकामी में एक पैटर्न होता है। एक तरह की सच्चाई होती है। वहीं, जब अर्थव्यवस्था परऔरऔर भी

कोई अपने फायदे के लिए नोट छापे तो गुनाह है। लेकिन केंद्रीय बैंक नोट पर नोट छापता जाए और दावा करे कि वह ऐसा देश और देश की अर्थव्यवस्था के कल्याण के लिए कर रहा है तो उसे सही मान लिया जाता है। अमेरिका के केंद्रीय बैंक, फेडरल रिजर्व के चेयरमैन बेन बरनान्के यही कर रहे हैं, किए जा रहे हैं। तीन महीने पहले 13 सितंबर को उन्होंने क्यूई-3 या तीसरी क्वांटिटेटिव ईजिंग की घोषणा की थीऔरऔर भी

मित्रों! न तो आपके इंतज़ार की घड़ियां खत्म हुई हैं और न ही मेरी। पढ़ाने से पहले पढ़ने में लगा हूं। एक बात तो साफ है कि निवेश के माध्यमों का जोखिम तो मै मिटा नहीं सकता। वो भविष्य में छलांग लगाने का मसला है, अनिश्चितता से जूझने का मामला है। वहां तो जोखिम हर हाल में रहेगा, कोई ‘भगवान’ तक उसे मेट नहीं सकता। लेकिन अपने स्तर पर मैं पढ़-लिखकर पक्का कर लेना चाहता हूं किऔरऔर भी

मान्यता है कि शेयर बाजार लंबे समय में फायदा ही देता है। लेकिन यह कोई निरपेक्ष सच नहीं है। इसकी सच्चाई का फैसला ‘कहां और कैसे’ से तय होता है। मसलन, जापान का निक्केई सूचकांक बीस साल पहले अक्टूबर 1992 में 16767 अंक पर था। अगस्त 1993 में 21,027 और जून 2006 में 22,757 तक चला गया। लेकिन फिर गिरने का सिलसिला शुरू हुआ तो अभी अक्टूबर 2012 में 8596 अंक पर आ चुका है। बीस सालऔरऔर भी