जिस देश के खज़ाना मंत्री को यह न पता हो कि उसके 125 करोड़ निवासियों में से कितने करोड़पति हैं और वो इसके लिए अमीरों की सत्यवादिता पर भरोसा करता हो, उस देश के खज़ाने का भगवान ही मालिक है और तय है कि कर्ज पर उस देश की निर्भरता बढ़ती चली जानी है। दूसरे शब्दों में उसका राजकोषीय घाटा बढ़ते ही जाना है। फिर भी हमारे वित्त मंत्री या खज़ाना मंत्री पी चिदंबरम दावा करते हैं कि वे नए वित्त वर्ष 2013-14 में राजकोषीय घाटे को जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) के 4.8 फीसदी तक सीमित रख लेंगे तो उनकी तरफ हम वैसे ही देख सकते हैं जैसे कोई मुवक्किल अपने वकील की तरफ देखता है। वैसे, आप जानते ही होंगे कि चिदंबरम साहब देश के बहुत बड़े वकील हैं। भारत को ठगनेवाली दीवालिया अमेरिकी कंपनी एनरॉन और उड़ीसा के आदिवासियों को धता देनेवाले अनिवासी भारतीय अनिल अग्रवाल के वेदांत समूह की भी वकालत उन्होंने अतीत में की है।
नए साल का बजट का पेश करते हुए उन्होंने बड़ी मजेदार बात कही। वो यह कि देश में केवल 42,800 लोग हैं जिन्होंने अपनी सालाना करयोग्य आय एक करोड़ रुपए से ज्यादा होने की बात स्वीकार की है। उन्होंने कहा कि यह आंकड़ा उन्होंने जानबूझकर उस देश के लोगों को शॉक देने के पेश किया है जो ‘सत्य और निष्ठा’ की सौगंध खाते हैं। चिदंबरम जी, यहां सत्य और निष्ठा की कोई बात नहीं आती। सरकार को जब आमतौर पर चोर समझा जाता हो, तो हर कोई अपनी दौलत उससे छिपाना चाहेगा। आप तो अपनी और अपने मंत्रियों या साथी सांसदों की सत्य-निष्ठा की बात कीजिए। क्या आपको नहीं पता कि आपकी तरफ से घोषित कृषि, ग्रामीण विकास, शिक्षा, अल्पसंख्यक कल्याण और स्वास्थ्य सेवाओं के लिए नियत जनधन का कितना बड़ा हिस्सा आपके साथीगण डकार जाते हैं? क्या आपको नहीं पता कि करोड़ों करोड़ का आवंटन इस राजनीतिक-प्रशासनिक तंत्र में ग्रीस लगाने के लिए होता है ताकि यह तंत्र कांग्रेस से लेकर, सपा, बसपा और भाजपा जैसी तमाम संसदीय पार्टियों की जीवनधारा बना रहे और उनका चुनावी बंदोबस्त होता रहे।
चिदंबरम ने बजट के दो दिन बाद एक इंटरव्यू में कहा कि देश में काली आमदनी की राशि का कोई अनुमान नहीं है। लेकिन 125 करोड़ लोगों के देश में 67 फीसदी लोग ऐसे हैं, जिनके सामने खाद्य सुरक्षा का जोखिम है या दूसरे शब्दों में उनके खाने के लाले पड़े रहते हैं या वे बूढ़े अथवा बच्चे हैं। बाकी 15 करोड़ लोग ऐसे हैं जो विभिन्न आय वर्गों में आते होंगे। उनके मुताबिक, आबादी के ऊपरी दस फीसदी की कमाई काफी मोटी होगी। यह संख्या सालाना एक करोड़ रुपए की आय घोषित करनेवाले 42,800 लोगों की कई गुना होगी। उनका कहना था कि हो सकता है कि ये लोग एक करोड़ न कमा रहे हों, लेकिन यकीनन इनकी सालाना आय 50 लाख से 75 लाख रुपए तो होगी ही। बता दें कि नए साल के बजट में एक करोड़ रुपए से ज्यादा सालाना आयवालों के 30 फीसदी टैक्स पर 10 फीसदी सरचार्ज लगाया गया है। केवल एक साल के लिए।
दिक्कत यह है कि देशवासियों से सत्यवादी होने की अपेक्षा करनेवाले चिदंबरम खुद कुछ न कुछ छिपा रहे हैं। ऐसा कैसे हो सकता है कि तीन साल पहले जब देश में निजी शोध संस्थाओ ने हाई नेटवर्थ इंडीविजुअल्स (एचएनआई) की संख्या 1.27 लाख आंकी हो और दो साल बाद इनकी संख्या 4.20 लाख हो जाने का अनुमान लगाया हो, तब लाखों कर्मचारियों का अपना जाल लेकर बैठे वित्त मंत्रालय के पास इसका कोई ठोस अनुमान न हो? असल में मूल बात यह है कि हमारी सरकार और वित्त मंत्री ज्यादा से ज्यादा लोगों को प्रत्यक्ष कर के दायरे में लाने से घबराते हैं।
जो सरकार को सीधे-सीधे टैक्स देगा, वह पूछ सकता है कि, “मैंने तुमको टैक्स दिया था। इसके बदले में तुमने मुझे क्या दिया?” आपको याद होगा कि 26 नवंबर 2008 को मुंबई में ताज होटल पर आतंकवादी हमले के बाद अमीर लोगों ने सड़क पर उतरकर यही सवाल सरकार से पूछा था। नोट करने की बात यह है कि टैक्स देना देश और सभ्यता के लिए अच्छा होता है। 19वीं सदी के मशहूर अमेरिकी लेखक ओलिवर वेन्डेल होम्स का चर्चित वाक्य है, “मैं टैक्स देना चाहता हूं। इस तरीके से मैं सभ्यता खरीदता हूं।” सभ्यता यकीनन परंपरा के साथ विकसित होती है। लेकिन उसके लिए शिक्षित दिमाग का होना भी ज़रूरी है। अपने यहां भले ही स्कूली शिक्षा को मौलिक अधिकार बना दिया गया हो, लेकिन हम इस मद में जीडीपी का केवल 3 फीसदी खर्च करते हैं। वहीं सार्वजनिक स्वास्थ्य पर हमारा खर्च जीडीपी के एक फीसदी से भी कम है। ऐसे में हमें सरकार से ललकार कर कहना चाहिए, “दम है तो हम पर लगाओ टैक्स। हम देने को तैयार हैं। लेकिन इससे पहले अपना गिरेबां इतना नीचा कर दो कि हम गलती करने पर उसे पकड़ सकें।” राजनीतिक तंत्र के भीतर अगर जवाबदेह बनने का माद्दा हो तो इस देश को न तो चालू खाते के घाटे को भरने के लिए और न ही राजकोषीय घाटे के इतज़ाम के लिए देश से बाहर देखने की जरूरत होगी।