मुझे इस बात का कोई अफसोस नहीं कि मैंने यह मंज़िल क्यों चुनी। मलाल है तो बस इतना कि मंजिल तक पहुंचने का रास्ता अभी तक धुंधला है। ज्ञान पर पड़े भाषा के परदे को तार-तार नहीं, तो कम से कम हल्का क्यों नहीं कर सका। जी हां! जिस देश में कुछ लोग ज्यादातर लोगों के नादान होने पर मौज कर रहे हैं, वहां भाषा बहुत बड़े परदे का काम करती है। लोग जानकार हो गए तो एजेंटों का झूठ पकड़ा जाएगा, विज्ञापनों का मायाजाल बेनकाब हो जाएगा। इसीलिए ‘जम्बू द्वीपे भरतखण्डे भारतवर्षे’ में राजकाज और समृद्धि की भाषा अंग्रेज़ी बनी हुई है।
मुंबई में रहने और पुराना स्थापित पत्रकार होने के नाते मैं कॉरपोरेट क्षेत्र के बड़े-बड़े सेमिनारों में बराबर जाता रहता हूं। फ्रांस या जर्मनी का कोई प्रतिनिधि अंग्रेज़ी में बोलता है तो उसकी मशक्कत साफ दिखती है। लेकिन उसे देख तकलीफ नहीं होती। वहीं, जब तमिलनाडु, बंगाल या बिहार के किसी प्रतिनिधि को अंग्रेज़ी में बोलते देखता हूं तो उसकी मशक्कत देखकर इस तंत्र पर बहुत गुस्सा आता है। लगता है कि इस शक्स के दिमाग के तारों को कैसे संड़सी से पकड़कर निचोया जा रहा है। मंच पर अंग्रेज़ी का लबादा ओढ़ औपचारिकता निभाता वही शख्स जब लंच के दौरान आपस में बातचीत करता है तो हिंदी में उतर आता है। पहले की जो भी स्थिति रही हो, लेकिन आज उत्तर से लेकर दक्षिण और पूरब से लेकर पश्चिम तक हिंदी सभी को स्वीकार्य है। राज ठाकरे जैसे राष्ट्रद्रोहियों की बात अलग है।
मातृभाषा भावनाओं की भाषा होती है। लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं कि हिंदी पूरे देश में मनोरंजन की भाषा बन चुकी है। इसे राष्ट्रीय स्तर पर ज्ञान की भाषा कैसे बनाया जाए, यह बड़ी चुनौती है। यह सच है कि जीवन आगे बढ़ चुका है और भाषा का शब्द-भंडार पीछे छूट चुका है। लेकिन भाषा की आत्मा तो व्याकरण है। जरूरत नयी अवधारणाओं को उनके मूल शब्दों के साथ आत्मसात करने की है। जब भारत गणित से लेकर सॉफ्टवेयर तक में दुनिया का अग्रणी देश बना हुआ हो, जब गांव का अनपढ़ शक्स भी मोबाइल की अटपटी टेक्नोलॉजी में पारंगत हो सकता है तो अर्थशास्त्र व फाइनेंस से लेकर विज्ञान तक ऐसी कोई अवधारणा नहीं है जिसे आम लोगों तक न पहुंचाया जा सके।
दिक्कत यह है कि जब हिंदुस्तान की अधिकांश आबादी अब भी धऱती को समतल मानकर जी रही हो, खेती-किसानी के ज़माने की सोच से ऊपर न उठी हो, गांव को मुल्क और शहर को परदेश समझती हो, जिनके लिए सूर्य ही परम देवता हो और समय एक चक्र में बंधा हुआ हो, वहां ‘धन के समय मूल्य’ को लोग सहजता से नहीं आत्मसात कर सकते। फिर शेयर का बढ़ना या एफडी में धन का दोगुना होना उसे किसी चमत्कार से कम नहीं लगता। यही वजह है कि कोई भी एजेंट उन्हें चरका पढ़ाकर चंपत हो जाता है।
पहुंचे हुए ठग आम लोगों की लालच का फायदा उठाते हैं और पीछे छोड़ जाते हैं लोगों के भीतर एक पछतावा। फिर लोग सुरक्षा के लिए जमीन-जायदाद और सोने का पारंपरिक माध्यम चुन लेते हैं। हमारी सरकार वित्तीय साक्षरता और वित्तीय समावेश की बात बराबर कर रही है। लेकिन उसकी यह बात अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं को खुश करके धन हथियाने का करतब मात्र है। वहीं, निजी क्षेत्र इस सरकारी धन को साइफन से निकालने के लिए ग्रासरूट स्तर पर काम की झांकी दिखाता है। ज़रा गौर कीजिए कि यूटीआई म्यूचुअल फंड टाइम्स ऑफ इंडिया में मंगलवार को ‘स्वतंत्र’ पेज़ निकालकर कौन से निवेशक को शिक्षित कर रहा है? क्या यह सिर्फ दिखावा और सरकारी धन को खींचने का साधन नहीं है?
दोस्तों! मैंने अर्थकाम के बीते तीन सालों के अनुभवों से जाना है कि सरकार और निजी क्षेत्र की वित्तीय साक्षरता महज खानापूर्ति है ताकि यहां-वहां से मिले धन की बंदरबांट की जा सके। उनका मूल मसकद आम लोगों के अज्ञान से फायदा उठाना है, न कि उन्हें सूचनाओं व अवधारणों के स्तर पर सबल बनाना। हम और आप मिलकर ही खुद को ज्ञानवान बना पाएंगे। लेकिन समस्या वही है कि हमारा आपसी टांका ठीक से भिड़ नहीं पा रहा है। आप भी परेशान हैं और हम भी परेशान।
बस, यूं समझ लीजिए कि अर्थकाम को फिर से नई धारणाओं के साथ लेकर आपके बीच दोबारा हाज़िर हूं। ‘फाइनेंस की पाठशाला’ बड़ा महत्वाकांक्षी प्रकल्प है जिसमें वीडियो या स्लाइड-शो के जरिए आप तक फाइनेंस की मूल अवधारणों पहुंचाने का लक्ष्य है। फिर निवेश के सारे माध्यमों के जोखिम और रिटर्न से आपको परिचित कराएंगे। उम्मीद है कि अंत तक आप यह जानने में सफल हो जाएंगे कि अर्थव्यवस्था और फाइनेंस के जगत में जो भी होता है, वह क्यों होता है। तब शायद किसी भी घाघ धंधेबाज़ के लिए आपको उल्लू बनाना संभव नहीं होगा। तब आप स्पीक एशिया जैसे ठगों से इतने सवाल पूछेंगे कि वे पूंछ दमाकर भाग जाएंगे। आम भारतीयों को इसी तरह सबल बनाने का अपना मकसद है। और, हम इस मकसद के लिए एक बार फिर खुद को समर्पित करते हैं। बातें तो बहुत-सी हैं। होती ही रहेंगी। अंत, गजानन माधव मुक्तिबोध की इन पंक्तियों के साथ कि…
मैं बहुत दिनों से, बहुत दिनों से बहुत-बहुत सी बातें तुमसे चाह रहा था कहना और कि साथ यों साथ-साथ फिर बहना, बहना, बहना। मेघों की आवाज़ों से, कुहरे की भाषाओं से, रंगों के उद्भासों से ज्यों नभ का कोना-कोना है बोल रहा धरती से, जी खोल रहा धरती से। त्यों चाह रहा कहना उपमा संकेतों से, रूपक से, मौन प्रतीकों से। मैं बहुत दिनों से बहुत-बहुत-सी बातें तुमसे चाह रहा था कहना!…
अनिल जी, सादर अभिवादन!
आपके प्रयास सिर माथे, और सबसे बड़ी बात ये कि हिन्दी जगत आपकी सेवाओं का ऋणि रहेगा। अर्थजगत की गंभीर गुत्थियाँ आपकी कलम की बदौलत बौनी नज़र आती हैं। ज्ञान का जो सागर अर्थकाम के माध्यम से लोगों तक पहुँच रहा है उसका कोई मोल नहीं। सच कहूँ तो आपके दर्शन की इच्छा मन में है, देखूँ कब अवसर मिलता है।
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-रवि श्रीवास्तव, लखनऊ