हिंदी हैं तो क्या किसी से कमतर हैं!

जब हर तरफ देश के अर्थ, व्यापार व वित्त जगत पर अंग्रेजी का आधिपत्य हो तो यह जरूरी हो जाता है कि हम हिंदी या दूसरी भारतीय भाषाओं की संभावनाओं और स्वाभिमान को जगाते रहे। यह जो खबर आप ठीक बगल में नवा जूनी में देख रहे हैं, इसे इकोनॉमिक टाइम्स ने आज अपनी लीड बनाई है। लेकिन हमने यह खबर साल भर पहले ही पेश कर दी थी। इससे मैं यकीकन एक आश्वस्ति का भाव अपने अंदर भर रहा हूं। लेकिन हम और आप अलग नहीं है। न मै इतना खास हूं और न ही आप इतने आम। अपने लिए आश्वस्ति पाने का एक अभिप्राय यह भी है कि हम अपने को किसी भी तरह की हीन भावना से मुक्त कर लें। आज नहीं, साल 2022 में पड़नेवाली देश की आजादी की 75वीं सालगिरह को ध्यान में रखें, जब अंग्रेजी भारत में प्रभुत्व की नहीं, हिंदी, मराठी, गुजराती, तमिल, तेलुगू और मलयालम या कन्नड़ जैसी एक आम भाषा होगी।

आज का खास संदर्भ यह भी है कि आज 7 अगस्त को हिंदी के प्रखर संपादक राजेंद्र माथुर का जन्मदिन है। मैं निजी अनुभव से जानता हूं कि माथुर जी हिंदी में आर्थक पत्रकारिता व लेखन को किस कदर प्रोत्साहित करते थे। यहां तक कि इसके लिए वे फ्रेम से बाहर तक निकल जाते थे। अर्थकाम उनकी सकारात्मक याद को ताजा करते हुए उनके काम को आगे बढ़ाने की वचनबद्धता दोहराता है। हम लगातार हिंदी आर्थिक पत्रकारिता को होड़ में स्थापित करने की कोशिश में लगे हैं।

इसी कड़ी में मैं आपको बताना चाहता हूं कि इस साल अप्रैल को सालाना मौद्रिक नीति आने से एक दिन पहले अर्थकाम ने लिखा कि रिजर्व बैंक चल सकता है 25-25-25 का दांव। और, ठीक वैसा ही हुआ है। अभी 26 जुलाई को अर्थकाम हिंदी ही नहीं, अंग्रेजी समाचार माध्यमों इकलौता माध्यम था जिसमें लिखा कि रिजर्व बैंक रिवर्स रेपो को 0.50 फीसदी बढ़ा सकता था। न मीडिया, न कोई अर्थशास्त्री ऐसा नहीं कह रहा था, सिर्फ हमने ऐसा लिखा। अपने विश्लेषण और अभिन्न व आत्मीय सूत्रों के आधार पर।

हाल ही में सेबी के टेकओवर समिति की रिपोर्ट पेश की गई। सिफारिश की गई कि अधिग्रहण के लिए ट्रिगर सीमा 15 से बढ़ाकर 25 फीसदी कर दी जाए। लेकिन इस संवाददाता ने पिछले साल 3 नवंबर 2009 को ही यह खबर पेश कर दी थी। कहने का मतलब यह है कि हमें हिंदी के स्वाभिमान को हासिल करना है तो उसके लिए बहुत मशक्कत करने की जरूरत नहीं है। मनोरंजन के क्षेत्र में हम आसानी से ऐसा कर चुके हैं। साहित्य, विज्ञान और आर्थिक पत्रकारिता के क्षेत्र में भी हम काफी आसानी से ऐसा कर सकते हैं। बस, इसके लिए निरंतर प्रयास की जरूरत है।

ऐसा कहकर जाहिर है कि मैं अपने को ढांढस बंधा रहा हूं ताकि पहले से भी ज्यादा ऊर्जा से अपना काम कर सकूं। लेकिन इसमें छिपी भावना को समझिएगा। यह कोई अहंकार नहीं है। अपने समाज के पिछड़े रह जाने की एक कचोट है जो गर्वोक्ति बनकर निकल रही है। अंत में बस इतना ही कि…

आवाहनं न जानामि न जानामि विसर्जनम्। पूजां चैव न जानामि क्षम्यतां परमेश्वरि।।
मन्त्रहीनं क्रियाहीनं भक्तिहीनं सुरेश्वरि। यत्पूजितं मया देवि परिपूर्ण तदस्तु मे।।

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