किसी भी स्टॉक या डेरिवेटिव के भाव में अनिश्चितता का एक ही स्रोत होता है, वह है उसके मूल्य की वोलैटिलिटी या स्टैंडर्ड डेविएशन। इन अनिश्चितता को या तो स्टॉक व डेरिवेटिव के मूल्य के समीकरणों को आपस में काटकर खत्म किया जा सकता है या इसे स्थिर मानकर इसके झंझट से ही निजात पाई जा सकती है। ब्लैक-शोल्स मॉडल में वोलैटिलिटी को स्थिर मान लिया गया है। पर, वास्तव में यह बराबर बदलती रहती है क्योंकि शेयरों के भाव कभी ज्यादा तेज़ी से बदलते हैं तो कभी धीरे-धीरे।
ब्लैक-शोल्स फॉर्मूले में वोलैटिलिटी काफी महत्वपूर्ण कारक है। लेकिन हम कहीं ऊपर से नहीं पकड़ सकते। फॉर्मूले में ऑप्शन का स्ट्राइक मूल्य, स्टॉक य सूचकांक का स्पॉट मूल्य, रिस्क-फ्री ब्याज की दर, एक्सपायरी में बचा समय और लाभांश यील्ड तक का आंकड़ा स्पष्ट होता है। लेकिन वोलैटिलिटी का नहीं। वोलैटिलिटी अगर वाकई स्थिर रहती तो कोई फर्क नहीं पड़ता। मगर वह तो बदलती रहती है। यह भी सवाल है कि हमें पांच साल की वोलैटिलिटी लेनी है अथवा एक साल, तीन महीने, दो महीने या हफ्ते भर की? यह कतई साफ नहीं है। इसी अस्पष्टता की वजह हम ब्लैक-शोल्स मॉडल से ऑप्शन का जो भाव निकालते हैं, वह बाज़ार में चल रही वास्तविक भाव से मेल नहीं खाता। इसे हम पहले के लेख में देख चुके हैं।
हम वोलैटिलिटी को ऊपर-ऊपर नहीं देख सकते। लेकिन स्टॉक या इंडेक्स ऑप्शन के बदलते भावों को बराबर देख सकते हैं। इसलिए ब्लैक-शोल्स फॉर्मूले में हम बाज़ार में चल रहे ऑप्शन के भाव को डालकर उसकी वोलैटिलिटी निकाल सकते हैं। फॉर्मूले में वोलैटिलिटी के अलावा सब चीजें डाल दीं। साथ में ऑप्शन का बाजार भाव डाल दिया। फिर फॉर्मूला जो वोलैटिलिटी निकालता है, वही उसकी इम्प्लायड वोलैटिलिटी कहलाती है। चूंकि यह ऑप्शन के मौजूदा बाज़ार से भाव से निकाली जाती है, इसलिए इसको इम्प्लायड वोलैटिलिटी कहते हैं। इसे बाज़ार द्वारा एक्सपायरी तक की अवधि के लिए स्टॉक या इंडेक्स की अपेक्षित भावी वोलैटिलिटी माना जा सकता है।
इस तरह निकाली गई इम्प्लायड वोलैटिलिटी के आधार पर अक्सर ट्रेडिंग की रणनीति बनाई जाती है। अगर किसी ऑप्शन की इम्प्लायड वोलैटिलिटी उसके सामान्य स्तर से ज्यादा हो, तब हम बेचते हैं और जब वह सामान्य स्तर से कम हो, तब हम ऑप्शन खरीदते हैं। इसे रणनीति को वोलैटिलिटी ट्रेडिंग भी कहते हैं। इम्प्लायड वोलैटिलिटी हमें विभिन्न ऑप्शंस के सापेक्ष भावों की तुलना करने का मौका भी देती है। आमतौर पर बाज़ार में जब अनिश्चितता अधिक रहती है, संकट रहता है तो इम्प्लायड वोलैटिलिटी ज्यादा हो जाती है। शेयर बाज़ार जब गिरता है तो इम्प्लायड वोलैटिलिटी बढ़ जाती है। वहीं, जब वह बढ़ता है तो इम्प्लायड वोलैटिलिटी घट जाती है।
वोलैटिलिटी की एक और अवधारणा बाज़ार में चलती है। उसे कहते हैं वोलैटिलिटी स्माइल। अगर हम किसी एक स्टॉक में अलग-अलग स्ट्राइक मूल्य के ऑप्शंस की इम्प्लायड वोलैटिलिटी निकालें तो पता चलता है कि हर ऑप्शन की इम्प्लायड वोलैटिलिटी समान नहीं होती। यह ब्लैक-शोल्स फॉर्मूले का उल्लंघन है क्योंकि वह मानकर चलता है कि वोलैटिलिटी स्थिर रहती है, नहीं बदलती। लेकिन हकीकत में ऐसा नहीं होता। स्ट्राइक प्राइस बदलने के साथ ही स्टॉक की वोलैटिलिटी बदल जाती है। दरअसल, ऑप्शन के भाव के साथ बदलती वोलैटिलिटी स्माइल जैसी दिखती है। इसकी आकृति वक्र जैसी होती है। किनारे-किनारे ज्यादा और बीच में कम। आउट ऑफ द मनी (ओटीएम) और इन द मनी (आईटीएम) ऑप्शन में इम्प्लायड वोलैटिलिटी ऐट द मनी (एटीएम) ऑप्शंस की तुलना में ज्यादा होती है।
लेकिन अलग-अलग स्ट्राइक मूल्य के ऑप्शंस में वोलैटिलिटी क्यों बदलती है, इसे समझने के लिए हमें वापस ब्लैक-शोल्स मॉडल पर गौर करना पड़ेगा कि उसमें क्या-क्या मानकर चला गया है। ध्यान रखें कि इम्प्लायड वोलैटिलिटी ब्लैक-शोल्स फॉर्मूला पर आधारित है। इसलिए अगर ब्लैक-शोल्स मॉडल सही है तो इम्प्लायड वोलैटिलिटी को हर स्ट्राइक मूल्य पर एकसमान रहना चाहिए। इसे स्ट्राइक मूल्य के साथ नहीं बदलना चाहिए। लेकिन ऐसा नहीं होता। इसलिए हमें देखना पड़ेगा कि ब्लक-शोल्स फॉर्मूले में मानी गई क्या-क्या चीजें वास्तविकता के धरातल पर फेल हो जा रही हैं।
इस फॉर्मूले में माना गया है कि स्टॉक पर मिलनेवाल रिटर्न नॉर्मल डिस्ट्रीब्यूशन के अनुरूप चलता है। लेकिन ऐतिहासिक डेटा बताता है कि असल में ऐसा नहीं होता। वास्तव में स्टॉक रिटर्न गिरावट की तरफ ज्यादा झुके होते हैं। बाज़ार जितना बढ़ता है, उससे ज्यादा गिरता है। स्टॉक रिटर्न नॉर्मल डिस्ट्रीब्यूशन से निकाले गए मूल्य से कहीं ज्यादा अतिरेक सीमा पकड़ते हैं। नॉर्मल डिस्ट्रीब्यूशन के पैटर्न को आधार बनाकर हम सही अंदाजा नहीं लगा सकते कि स्टॉक की रेंज क्या हो सकती है। नॉर्मल डिस्ट्रीब्यूशन की इस विफलता के चलते अलग-अलग स्ट्राइक मूल्य के ऑप्शंस की इम्प्लायड वोलैटिलिटी अलग-अलग रहनी है।
इसे समझने के लिए हम काले सोमवार का उदाहरण लेते हैं। 18 अक्टूबर 1987 के दिन अमेरिकी शेयर बाज़ार एक ही दिन में 20% गिर गया था। इसके एक हफ्ते बाद ही वह फिर एक दिन में 8% गिर गया। नॉर्मल डिस्ट्रीब्यूशन के पैटर्न के मुताबिक अमेरिकी शेयर बाज़ार को एक लाख करोड़ दिनों में केवल एक बार 6% से ज्यादा गिरना चाहिए। दूसरे शब्दों में ऐसा कभी नहीं होना चाहिए। लेकिन काले सोमवार ने साबित कर दिया कि शेयर बाज़ार नॉर्मल डिस्ट्रीब्यूशन के पैटर्न पर नहीं चलते।
चूंकि स्टॉक रिटर्न नॉर्मल डिस्ट्रीब्यूशन के हिसाब से नहीं चलते और वोलैटिलिटी स्थिर नहीं है, इसलिए ब्लैक-शोल्स मॉडल सच्चाई नहीं पकड़ पाता और हमें अलग-अलग स्ट्राइक मूल्य पर भिन्न इम्प्लायड वोलैटिलिटी देखने को मिलती है। इम्प्लायड वोलैटिलिटी एक्सपायरी में बचे समय के हिसाब से भी बदलती है। अलग-अलग स्ट्राइक मूल्य और एक्सपायरी में बचे समय के हिसाब से बदलती इम्प्लायड वोलैटिलिटी के मेल को वोलैटिलिटी सरफेस (सतह) कहा जाता है। इसे ग्राफ पर समय और इम्प्लायड वोलैटिलिटी के दो एक्सिस पर दिखाया जा सकता है। खैर, उसके बारे में बाद में।