सरकार देश की सबसे बड़ी कर्जदार है और उसके कर्ज के इंतजाम का सारा ज़िम्मा रिजर्व बैंक का है। यह भारत सरकार और रिजर्व बैंक के बीच हितों का सबसे बड़ा टकराव है। इसे दूर करने के लिए तब के वित्त मंत्री अरुण जेटली ने वित्त वर्ष 2015-16 के बजट में सरकार के ऋण प्रबंधन के लिए एक स्वतंत्र पब्लिक डेट मैनेजमेंट एजेंसी (पीडीएमए) बनाने का प्रस्ताव रखा था। लेकिन अप्रैल 2023 तक आते-आते पीडीएमए की यहऔरऔर भी

हम प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और अन्य मंत्रियों के चेहरों पर जो चमक और आवाज़ में जो खनक देखते हैं, उसके पीछे हमारे टैक्स से ज्यादा उस ऋण का पोषण है जो हमारी संप्रभुता के दम पर लिया जाता है। जैसे, चालू वित्त वर्ष 2024-45 का बजट ₹48,20,512 करोड़ का है। इसका 33.5% या ₹16,13,312 करोड़ सरकार कर्ज से जुटा रही है। देश के खासो-आम से जुटाए गए ₹25,83,499 करोड़ के टैक्स के प्रति जवाबदेही बनती है। लेकिन सरकारऔरऔर भी

वित्त सचिव से रिजर्व बैंक के गवर्नर बने शक्तिकांत दास ने छह साल तक मोदी सरकार के दास की तरह काम किया। 12 दिसंबर 2018 को उनके गवर्नर बनने के बाद से 31 मार्च 20124 तक सरकार रिजर्व बैंक के खजाने से ₹6.61 लाख करोड़ साफ कर चुकी है। दास से पहले गवर्नर रहे उर्जित पटेल ने जब इसका विरोध किया था तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उन्हें खजाने पर कुंडली मारकर बैठा नाग तक कह दियाऔरऔर भी

सरकार ब्याज दरें क्यों घटवाना चाहती है? कहने और बोलने को इसका मसकद यह है कि ब्याज दरें कम होंगी तो निजी क्षेत्र पूंजी निवेश करने को प्रेरित होगा। लेकिन क्या अर्थव्यवस्था में मांग पैदा किए बगैर निजी क्षेत्र को पूंजी निवेश के लिए उकसाया जा सकता है? उसके पास अभी जो उत्पादन क्षमता है, उसका पूरा इस्तेमाल तो वो अभी मांग न होने की वजह से कर नहीं पा रहा। ऐसे में ब्याज दरें कितनी भीऔरऔर भी

सितंबर 2024 की तिमाही में देश के जीडीपी की विकास दर घटकर 5.4% रह जाने से सरकार के पसीने छूट रहे हैं। उसे डर है कि दस सालों से अर्थव्यवस्था के इर्द-गिर्द बुना जा रहा तिलिस्म कभी भी भरभराकर टूट सकता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तो बोलती बंद है। लेकिन दो प्रमुख आर्थिक मंत्रालयों से संबद्ध वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल और वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने सारे घोड़े खोल दिए हैं। अपनी अकर्मण्यता पर नज़र डालनेऔरऔर भी

जीडीपी की विकास दर घटने को दो अन्य वजहें ज्यादा संगीन है और भारत की विकासगाथा पर कुठाराघात करती हैं। सरकार टैक्स संग्रह बढ़ने को अपनी नीतियों की सफलता बताती है। जैसे, नवंबर में जीएसटी से ₹1,82,269 करोड़ मिले तो उसने खूब वाहवाही लूटी। लेकिन अवाम से ज्यादा टैक्स वसूलना देश के विकास के लिए घातक है। हमारे यहां केंद्र से लेकर राज्य व लोकल टैक्सों को मिला दें तो वे जीडीपी का 19% बनते हैं, जबकिऔरऔर भी

जीडीपी की विकास दर के धीमा पड़ने की तीन खास वजहें हैं और तीनों की ज़िम्मेदार केंद्र सरकार और रिजर्व बैंक की नीतियां हैं। पहली है वास्तविक ब्याज दरों का ज्यादा होना। रिजर्व बैंक ने 21 महीनों से रेपो दर (वो ब्याज़ दर जिस पर रिजर्व बैंक बैंकों को दो-तीन दिन का ऋण देता है) को 6.5% पर ही बांधे रखा है। ताज़ा आंकड़ों के मुताबिक अक्टूबर में रिटेल मुद्रास्फीति की दर 6.21% और खाद्य वस्तुओं वऔरऔर भी

अर्थव्यवस्था की विकास दर पत्थर पर लिखी इबारत नहीं होती, न लम्बी अवधि की और ना ही छोटी अवधि की। शेयर बाज़ार की तरह उसकी गति कतई रैण्डम भी नहीं होती। अगर ऐसा होता तो नीति बनानेवालों की कोई ज़रूरत ही नहीं होती। सब कुछ भगवान-भरोसे या आज के संदर्भ में कहें तो राम-भरोसे होता। अर्थव्यवस्था या जीडीपी की विकास दर हमेशा सरकार द्वारा अपनाई गई नीतियों से तय होती है। नीतियां सही नहीं रहीं तो सारीऔरऔर भी

एक तरफ ‘मोदी-अडाणी एक हैं’ के नारे का जवाब भाजपा ‘राहुल-सोरोस एक हैं’ से दे रही है। दूसरी तरफ भारत की विकासगाथा की कलई उतरती जा रही है। सितंबर महीना बीतने के बाद 9 अक्टूबर को पेश मौद्रिक नीति में रिजर्व बैंक ने चालू वित्त वर्ष की दूसरी तिमाही या सितंबर तिमाही में जीडीपी की विकास दर 7%, तीसरी तिमाही में 7.4%, चौथी तिमाही में 7.4% और पूरे वित्त वर्ष में 7.2% का अनुमान उछाला था। लेकिनऔरऔर भी

क्या भारत की विकासगाथा इतनी भुरभुरी, कमज़ोर बुनियाद और कच्ची दीवार पर खड़ी है कि भ्रष्टाचार का सच उजागर करने से खतरे में पड़ जाएगी और जो भी इस मुद्दे को उठाने की कोशिश करेगा, उसे गद्दार व देशद्रोही करार दिया जाएगा? ऐसा होना तो नहीं चाहिए। लेकिन देश में इस वक्त यही हो रहा है। भरी संसद में भाजपा के सांसद निशिकांत दुबे ने कांग्रेस सांसद और नेता-प्रतिपक्ष राहुल गांधी को देशद्रोही करार दिया। वहीं, संसदऔरऔर भी