अर्थव्यवस्था की विकास दर पत्थर पर लिखी इबारत नहीं होती, न लम्बी अवधि की और ना ही छोटी अवधि की। शेयर बाज़ार की तरह उसकी गति कतई रैण्डम भी नहीं होती। अगर ऐसा होता तो नीति बनानेवालों की कोई ज़रूरत ही नहीं होती। सब कुछ भगवान-भरोसे या आज के संदर्भ में कहें तो राम-भरोसे होता। अर्थव्यवस्था या जीडीपी की विकास दर हमेशा सरकार द्वारा अपनाई गई नीतियों से तय होती है। नीतियां सही नहीं रहीं तो सारी सामर्थ्य व संभावना होने के बावजूद भारत साल 2047 तक विकसित देश नहीं बन सकता। चालू वित्त वर्ष 2024-25 की दूसरी तिमाही में अगर हमारा जीडीपी 7% के अनुमान के बजाय 5.4% ही बढ़ा है तो इसके कुछ ठोस कारण हैं जिनकी शिनाख्त देश के ज़िम्मेदार नागरिक होने के नाते हम सभी को करनी होगी। सरकार और उसके अर्थशास्त्री इसकी ठीकरा श्राद्ध जैसी वजहों स आम लोगों की कम खरीद, चुनाव की वजह से सरकार के पूंजीखर्च में आई सुस्ती और निजी क्षेत्र के कम पूंजी निवेश पर फोड़ सकते हैं। लेकिन यह सब कुछ तो रूटीन और जाना-पहचाना तथ्य है। फिर सरकार ने माकूल नीति बनाकर इसका समाधान क्यों नहीं निकाला? मामला इतना आसान नहीं क्योंकि सरकार के ही कुछ कर्मों ने ही जीडीपी को डुबोया है। अब बुधवार की बुद्धि…
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