टीएफटी पर सेबी का फैसला खोखला, होगा सिर्फ खिलाड़ियों का भला

शेयरों के उतार-चढ़ाव को थामने के लिए पूंजी बाजार नियामक संस्था, सेबी ने उन्हें ट्रेड फॉर ट्रेड (टीएफटी) सेगमेंट में डालने का जो फैसला किया है, उससे निवेशकों का नहीं, बल्कि बाजार के उस्ताद खिलाड़ियों या ऑपरेटरों का ही भला होगा। सेबी ने आम निवेशकों से जुड़े इतने अहम मसले पर गौर करते हुए बहुत सामान्य बातों का भी ध्यान नहीं रखा है। यह कहना है शेयर बाजार से जुड़ी एक महत्वपूर्ण ब्रोकर फर्म के प्रमुख का। लेकिन सेबी का भय इतना है कि इस फर्म के प्रमुख अपना नाम नहीं जाहिर करना चाहते।

उनका कहना है कि ज्यादातर आम निवेशक डेरिवेटिव सेगमेंट से बाहर की कंपनियों के शेयरों में निवेश करते हैं और मिड व स्माल कैप के इन शेयरों पर दांव लगाकर वे पैसे बनाते हैं। इसमें ऑपरेटरों के खेल को जितना कम किया जाए, उतना ही निवेशकों का भला होगा। लेकिन सेबी ने तय किया है कि ऐसी कंपनियों को 31 अक्टूबर 2010 तक सुनिश्चित करना होगा कि प्रवर्तकों के अलावा पब्लिक के हिस्से का कम से कम 50 फीसदी हिस्सा डीमैट स्वरूप में हो, नहीं तो उनके शेयर बी ग्रुप से निकालकर टीएफटी सेगमेंट में डाल दिए जाएंगे। इस समय ऐसी लिस्टेड कंपनियों की संख्या 6000 के आसपास है।

ब्रोकर फर्म के प्रमुख का कहना है कि प्रवर्तकों की इक्विटी को डीमैट करने की बात समझ में आती है। लेकिन गैर-प्रवर्तक इक्विटी को डीमैट कर पाना इतने कम समय में कैसे संभव है। 28 अगस्त 2010 तक के आंकड़ों के अनुसार एनएसडीएल (नेशनल सिक्यूरिटीज डिपॉजिटरी लिमिटेड) के पास 1.04 करोड़ और सीडीएसएल (सेंट्रल डिपॉजिटरी सर्विसेज लिमिटेड) के पास 68.84 लाख डीमैट खाते हैं। इन 1.72 करोड़ डीमैट खाताधारियों तक पहुंचकर उनसे कंपनियों के शेयरों को डीमैट करवाना व्यावहारिक नहीं है।

फिर भी सेबी अगर ऐसा करवाना ही चाहती है तो इसका मतलब है कि वह कहीं न कहीं से मानती है कि आम निवेशकों के बीच प्रवर्तकों के ही बहुत सारे बेनामी निवेश हैं और इसलिए प्रवर्तक कंपनी के कम से कम 50 फीसदी शेयरों को डीमैट करवा लेंगे। लेकिन तब क्या इसे कानूनन प्रवर्तकों की मिलीभगत का मानना नहीं माना जा सकता? इसलिए सेबी का नया कदम छोटी कंपनियों के शेयरधारकों को केवल परेशान करेगा, उनकी मुश्किल नहीं सुलझाएगा।

उनका कहना है कि वैसे इस तरह का नियम पूंजी बाजार के लिए नया नहीं है। अभी तक यह बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज में किसी शेयर को ज़ेड ग्रुप से निकालकर ट्रेड टू ट्रेड ग्रुप में डालने का आधार रहा है। इसलिए ट्रेड टू ट्रेड ग्रुप में किसी शेयर के होने से ही मान लिया जाता है कि वह पहले ज़ेड ग्रुप में रहा होगा। लेकिन अब तो बी ग्रुप के शेयरों को टीएफटी में डालने की तैयारी कर ली गई है। 31 अक्टूबर अंतिम तारीख है। लेकिन व्यावहारिक रूप से सितंबर की तिमाही के अंत तक जो कंपनी गैर-प्रवर्तक इक्विटी का कम से कम 50 फीसदी हिस्सा डीमैट नहीं करवा पाएगी, उसके शेयर टीएफटी में चले जाएंगे। और, टीएफटी में जाने का व्यावहारिक मतलब होता है कि उसे शेयर का मृतप्राय हो जाना।

सेबी ने तय किया है कि विलय जैसी बड़ी घटना के समय शेयरों के भावों में आनेवाले भारी उतार-चढ़ाव को रोकने के लिए उसे दस दिन तक टीएफटी में डाल दिया जाएगा। लेकिन ब्रोकर फर्म के प्रमुख का कहना है कि इसमें भी पहले दिन कोई प्राइस बैंड न रखकर सेबी ने निहित स्वार्थों को शेयर के साथ मनमाना खेल खेलने की इजाजत दे दी है। ऐसे कई मामले हाल में हो चुके हैं। जैसे, एस्टर लाइफ साइंसेज में शेयर के भाव उठाकर 200 रुपए से ऊपर ले जाए गए और शेयर फिर गिरा तो 60 रुपए तक आ गया। आरडीबी इंडस्ट्रीज में डीमर्जर का फैसला हुआ तो पहले दिन प्राइस डिस्कवरी के नाम पर ऑपरेटरों को प्राइस बैंड या सर्किट ब्रेकर के बिना खेल खेलने की सहूलियत दी गई है। उन्होंने उसी दिन इस शेयर को 160 रुपए तक उठाया और बाद में लाकर 48 रुपए पर पटक दिया।

उनका कहना है कि डीमर्जर, पूंजी में कमी, ऋण के पुनर्गठन जैसे कामों के बाद कंपनी के शेयर में पहले दिन कोई ओपन लिमिट नहीं होनी चाहिए। मूल्य पहले से बंधे होने चाहिए। प्रवर्तक से कहा जाना चाहिए कि वह मर्चेंट बैंकर के सर्टिफिकेट के साथ बताए कि कंपनी को दो हिस्से में बांटने के बाद इन अलग-अलग इकाइयों के शेयरों का उचित मूल्य क्या बनता है ताकि बाजार में शेयर के भाव उसी दायरे में रहें। अभी ज्यादातर मामलों में होता है कि कंपनी का एक हिस्सा तो लिस्टेड रहता है, जबकि दूसरा अनलिस्टेड। जब अरसे बाद दूसरा हिस्सा लिस्टेड होता है तब तक ऑपरेटर पहले हिस्से में पूरा खेल खेल चुके हैं और आम निवेशक की बचत में सेंध लग चुकी होती है।

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