ग्लोबल होती जा रही दुनिया में देश की मुद्रा का कमज़ोर होना कोई बुरी बात नहीं, बशर्ते वो देश आयात से ज्यादा निर्यात करता हो। लेकिन रुपए का कमज़ोर होते जाना भारत के लिए कतई अच्छा नहीं है क्योंकि हमारा निर्यात सीमित है और हम कहीं ज्यादा आयात करते हैं। यह उन भारतीय परिवारों के लिए भी बुरा है जो अपने बच्चों को अमेरिका या यूरोप पढ़ने के लिए भेजते हैं। डॉलर की तो बात ही छोड़िए, जो यूरो चार-पांच साल पहले तक तक 80 रुपए का था, वो आज 93.50 रुपए के भी पार चला गया है। पहले 10,000 यूरो की फीस से लिए 8 लाख रुपए देने पड़ते थे। अब उसी फीस के लिए 9.35 लाख रुपए से ज्यादा देने पड़ रहे हैं। अमूमन होता यह है कि देश की मुद्रा कमज़ोर होने पर उसका निर्यात बढ़ जाता है। चीन और जापान जैसे तमाम देश तो इसीलिए अपनी मुद्रा को सायास दबाकर रखते हैं। लेकिन भारत में दस साल में रुपए के 28% कमज़ोर हो जाने के बावजूद हमारा निर्यात कमोबेश ठहरा हुआ है और व्यापार घाटा बढ़ता जा रहा है। वित्त वर्ष 2013-14 में हमारा व्यापार घाटा 136 अरब डॉलर था। यह 2023-24 तक बढ़कर 238.3 अरब डॉलर हो गया है। साल भर पहले 2022-23 में तो यह इससे भी ज्यादा 264.9 अरब डॉलर हुआ करता था। स्थिति यह है कि हम अपने अपने शीर्ष दस पार्टनर देशों में से नौ के साथ व्यापार घाटा झेल रहे हैं। अब मंगलवार की दृष्टि…
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