डॉलर के मुकाबले रुपए का गिरना कोई अनोखी बात नहीं। 2008 के वैश्विक वित्तीय संकट के दौरान रुपया गिरा था और 2013 में भी खूब गिरा जब अमेरिका के क्रेंदीय बैंक फेडरल रिजर्व ने घोषणा कर दी थी कि वो सरकार के ट्रेजरी बॉन्ड खरीदकर सिस्टम में डॉलर झोंकने का सिलसिला धीमा करने जा रहा है जिसके बाद वहां के सरकारी बॉन्डों के दाम घट और उन पर यील्ड बढ़ गई थी। लेकिन इस बार रुपया केवल विदेशी निवेशको के निकलने या किसी बाहरी वजह से नहीं, बल्कि देश के भीतर की संरचनात्मक समस्याओं के चलते गिर रहा है। दुनिया में विकास दर बढ़ रही है, तब बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में सबसे तेज़ गति से बढ़ते भारत की विकास दर घट क्यों रही है? कोरोना के दौरान डुबकी लगाने के बाद हमारी अर्थव्यवस्था सेवाओं के निर्यात के दम पर जमकर बढ़ी है। इसके चलते बैंगलोर, हैदराबाद व पुणे जैसे शहरों में ग्लोबल कैपेबिलिटी सेंटर्स (जीसीसी) बनने लगे, जहां सॉफ्टवेयर विकास में कुशल सॉफ्टवेयर इंजीनियरो की खपत बढ़ गई। इसके चलते देश के भीतर रीयल एस्टेट, महंगी कारों और अन्य शानो-शौकत वाली वस्तुओं व सेवाओं की मांग को आवेग मिला। इससे अर्थव्यवस्था के बड़े हिस्से में चल रही कमज़ोरी दब गई। लेकिन जीसीसी का बूम ठंडा पड़ते ही हमारी आर्थिक संरचना की विसंगति उजागर होने लगी है। अब मंगलवार की दृष्टि…
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