खेत-खलिहान दुकान, फैक्ट्रियां क्यों नहीं

हम आसपास नज़र डालें तो ज्यादातर लोग कृषि या व्यापार में ही लगे हुए हैं। बहुत हुआ तो लोग खेती-किसानी से निकलकर छोटी-मोटी दुकानदारी या ठेला-खोमचा टाइप बिजनेस कर लेते हैं। दिक्कत यह है कि इन सभी क्षेत्रों में कभी इतना वैल्यू एडिशन या मूल्य-वर्धन हो ही नहीं सकता कि वे ज्यादा रोज़गार दे सकें। घर-परिवार के लोगों के साथ दो-चार को काम दे दिया तो बहुत है। सेवा क्षेत्र का केंद्र शहरी इलाके हैं और यह क्षेत्र भी ज्यादा रोज़गार देने की सामर्थ्य नहीं रखता। कंस्ट्रक्शन और रीयल एस्टेट में मिला रोज़गार तात्कालिक होता है। काम खत्म, रोज़गार खत्म। ऐसे में केवल बड़ी-बड़ी फैक्ट्रियां ही देश में छाई रोज़गार की विकट समस्या का समाधान कर सकती हैं। लेकिन अपने आसपास फिर नजर दौड़ाकर देखें। क्या पिछले कुछ सालों में नई फैक्ट्रियां खड़ी हुई हैं? फैक्ट्रियों की जगह नई इमारतें ज़रूर बनती जा रही हैं। सड़कें, पुल और हवाई अड्डे बन रहे हैं, विशालकाय आवासीय व कमर्शियल कॉम्प्लेक्स बन रहे हैं। लेकिन शहरी सीमाओं से बाहर या गांवों के आसपास कोई फैक्टरी नहीं लग रही। आखिर मुठ्ठी भर लोगों के पास ही जो इफरात धन आ रहा है, उससे वे नई फैक्ट्रियां क्यों नहीं लगा रहे? इसमें मुश्किल क्या है? अब सोमवार का व्योम…

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