जिस तरह नोटबंदी के घोषित लक्ष्य और असली मकसद अलग-अलग थे, उसी तरह जनधन खातों का असली मकसद देश के वंचित दबकों को सशक्त बनाना कतई नहीं था। अजीब बात है कि करोड़ों लोगों के पास कमाई के साधन और पेट भरने को अनाज नहीं, उनके बैंक खाते खोलने का ढोल बजाया जा रहा है! घर में नहीं है दाने, अम्मा चली भुनाने। सरकार भलीभांति जानती है कि किसानों को सौगात नहीं, फसलों का वाजिब दाम चाहिए, गरीबों को मुफ्त राशन नहीं, रोज़ी-रोज़गार के साधन चाहिए। बेरोज़गारों को काम चाहिए तो महिलाओं को सच्ची सुरक्षा, सम्मान व भागीदारी। फिर भी वो झांकी बनाने और नौटंकी करने से बाज नहीं आती। मूल कारण ये है कि सरकार का एजेंडा कोई और तय करता है। ये अपने दिमाग और सच्चाई पर नहीं, बल्कि एजेंडे पर काम करती है। देश में 1991 से आर्थिक उदारवाद शुरू होने के समय से ही विदेशी कंपनियों व संस्थाओं ने इंफ्रास्ट्रक्चर दुरुस्त करने का दबाव बनाया। फिर साल 2004 तक विश्व बैंक और विकसित देशों के संगठन, ओईसीडी ने वित्तीय समावेशन का एजेंडा सेट कर दिया। मोदी सरकार राजनीतिक मोर्च पर संघ और आर्थिक मोर्चे पर इन्हीं का एजेंडा लागू कर रही है। अगर देश के अवाम, खासकर महिलाओं को सशक्त करना होता तो वह केरल की तर्ज पर कुटुम्बश्री जैसी पहल करती, न कि ड्रोन दीदियों जैसी कमीशन खाने की स्कीम की। अब शुक्रवार का अभ्यास…
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