रिजर्व बैंक आरबीआई एक्ट, 1934 के सेक्शन-47 के तहत रिस्क के लिए सही प्रावधान और उचित लाभांश का फैसला करता है। बिमल जालान समिति ने यह फैसला करने का आधार ही बदल दिया। उसने एक नया आर्थिक पूंजी फ्रेमवर्क (ईसीएफ) बना डाला, जिसमें आर्थिक पूंजी को कंटिन्जेंट रिस्क बफर (सीआरबी) या रीयलाइज्ड इक्विटी और बदलते रहनेवाले वोलैटाइल री-वैल्यूएशन रिजर्व के दो हिस्सों में बाट दिया। उसने तय किया कि कंटिन्जेंट रिस्क बफर (सीआरबी) रिजर्व बैंक की बैलेंस शीट के 5.5% से 6.5% तक रखा जाए। सीआरबी मूलतः रिजर्व बैंक का कंटेन्जेंसी फंड (आकस्मिक निधि) है जो वह विनिमय दर संबंधी कामकाज और मौद्रिक नीति के फैसलों से उपजी अप्रत्याशित आकस्मिकताओं से निपटने के लिए अलग रखता है। तब तक रिजर्व बैंक अपनी बैलेंस शीट का 6.5% से 8% हिस्सा आकस्मिक निधि के रूप में रखता था। साथ ही पूरा सरप्लस सरकार को देने के बजाय उसका बड़ा हिस्सा अपने पास रखता था ताकि आंतरिक रिस्क को संभालने में उसे दिक्कत न आ जाए। अपनी इसी नीति की वजह से 2008 के भयंकर वैश्विक वित्तीय संकट के दौरान भी रिजर्व बैंक ने भारत की मौद्रिक प्रणाली और बैकिंग व्यवस्था को खरोच तक नहीं आने दी। अब गुरुवार की दशा-दिशा…
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