भारत के साथ सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि जो ऊपर-ऊपर दिख रहा है, वो असल में वैसा है या नहीं, इसका कोई भरोसा या ठिकाना नहीं। सबसे तेज़ी से बढ़ती बड़ी अर्थव्यवस्था, जीडीपी में दुनिया की पांचवीं से चौथी और चंद सालों में तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाने के शोर और धमाकेदार सुर्खियों के झाग के नीचे कोई देखने की जहमत नहीं उठाता कि हमारी टैक्स प्रणाली, सरकारी दखल और न्यायिक से लेकर इन्सॉल्वेंसी जैसी प्रक्रियाएं अब भी कितनी दुरूह व जटिल हैं। उपभोक्ताओं की ठहरी मांग के साथ ही यह दुरूहता और जटिलता देशी-विदेशी कंपनियों को भारत से बाहर भागने पर मजबूर कर रही है। जिस ‘ईज़ ऑफ डूइंग बिजनेस’ सूचकांक की डुगडुगी मोदी सरकार सालों तक पीटती रही, उसका पैमाना एक तो दिल्ली व मुंबई तक सीमित था और दूसरे बाद में पता चला कि विश्व बैंक से जुड़े होने के बावजूद वो फ्रॉड था। 2008-09 में भारत में आया शुद्ध एफडीआई (प्रत्यक्ष विदेशी निवेश) जीडीपी का 2.65% हुआ करता है। लेकिन मेक-इंडिया, स्टार्ट-अप इंडिया व स्टैंड-अप इंडिया जैसे कार्यक्रमों और पीएलआई जैसी स्कीमों के बावजूद 2024-25 में यह लगभग शून्य हो चुका है। भारत दुनिया में अपनी साख खोता जा रहा है। हर बजट में धन बहाया जा रहा है, सत्ता में बैठी भाजपा अमीर होती जा रही है, लेकिन राष्ट्र खोखला होता जा रहा है। अब शुक्रवार का अभ्यास…
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