भागते बच्चे, पिटते बच्चे, चच्चू को बाल दिवस पर मुंह चिढ़ाते बच्चे

बाल दिवस। चाचा नेहरू का जन्मदिन। पत्र-पत्रिकाओं में सरकारी विज्ञापन। सब शोशेबाजी है, नारा है। हकीकत यह है कि इन दिनों देश में बच्चों का पलायन तेजी से बढ़ रहा है और उसी अनुपात में उनके साथ उत्पीड़न की घटनाएं और आंकड़े भी। खास तौर से मजदूरी के लिए बच्चों को एक राज्य से दूसरे राज्य में आदान-प्रदान किए जाने का सिलसिला जोर पकड़ता जा रहा है। विभिन्न शोध-सर्वेक्षणों और रिपोर्टों से यह जाहिर भी हो रहा है कि मुख्य तौर पर बिहार, पूर्वी उत्तर-प्रदेश, झारखंड, मध्य प्रदेश और आंध्र प्रदेश से महाराष्ट्र और गुजरात सहित पूरे देश भर में मजदूरी के लिए बच्चों की पूर्ति की जा रही है। इन बच्चों में ज्यादातर की उम्र 10 से 16 के बीच है। इनमें भी ज्यादातर लड़के ही हैं।

कई सर्वेक्षणों और तजुर्बे यह भी बता रहे हैं कि मजदूरी में लगे ज्यादातर बच्चे स्कूल जरूर गए हैं, मगर वह नियमित नहीं हो सके हैं। बच्चों के बारम्बार पलायन के पीछे की मुख्य वजहों में बच्चों ने अपने घर की गरीबी, मारपीट, डर और दबाव को जिम्मेदार ठहराया है तो कभी मुंबई और सूरत जैसे बड़े शहरों की तड़क-भड़क को देखने की दबी चाहत को भी बाहर निकला है। इस दिशा में बच्चों की सुरक्षा को लेकर कई कदम उठाए जाने की बात कही जाती रही है, मगर अभी तक इन मामलों के न रुकने से यथार्थ की गंभीरता को भलीभांति समझा जा सकता है।

दूसरी तरफ बालगृहों से लगातार बच्चों के भागने की घटनाएं बयान करती हैं कि मुंबई सहित देश भर के सरकारी बालगृहों में बच्चों की सही देखभाल की असलियत क्या है। बीते समय मुंबई के एक बालगृह से कुछ बच्चों के भागने और उनमें से एक के हादसे में मारे जाने घटना उजागर हुई थी। आम तौर पर देखा गया है कि ज्यादातर बालगृहों द्वारा भागने वाले बच्चों के बारे में पता लगाने जरूरत भी महसूस नहीं की जाती हैं। ऐसे बच्चों को ढूंढने की भी तमाम कोशिशें तो दूर महज एक रिपोर्ट तक नहीं लिखवाई जाती है। हफ्तों-हफ्तों बच्चों के गायब रहने के बावजूद बालगृहों की तरफ से चुप्पी साध ली जाती है, जबकि नियमानुसार इस तरह की घटनाओं की जानकारी फौरन थाने में और उच्च अधिकारियों को देना जरूरी है। यहां तक कि महिला और बाल कल्याण विभाग को भी इस तरह की ज्यादातर घटनाओं की प्राथमिक सूचना किसी अखबार या गैर-सरकारी संस्था के जरिए ही मिलती है।

भागने वाले कुछ बच्चों के बारे में जब हमने खैर-खबर जाननी चाही तो पता लगा कि सामान्यत: बालगृहों की तरफ से इन बच्चों की गुमशुदगी के बारे में न तो पुलिस को ही सूचना दी जाती है और न ही विभाग को इस बारे में बताया जाता है। कई बार तो बच्चों के साथ होने वाली दुर्घटनाएं और आपराधिक मामले प्रकाश में आने के बाद ही बच्चों के भागने की रिपोर्ट दर्ज की जाती है। बच्चों के इस तरह से गायब होने की तुरंत रिपोर्ट न लिखवाना महज एक लापरवाही ही नहीं, बल्कि बड़ा अपराध भी है।

मुंबई के सरकारी बालगृहों से बीते 6 सालों में तकरीबन तीन सौ से ज्यादा बच्चे भागे हैं, मगर इतना होने के बावजूद लापरवाही का आलम ज्यों का त्यों है। समाज कल्याण विभाग से मिली अनौपचारिक जानकारी के मुताबिक बालगृहों में कर्मचारियों की कमी है। एक कर्मचारी पर सैकड़ों बच्चों को संभालने की जवाबदारी होती है। काम के दबाव में कई बार कर्मचारियों द्वारा जब बच्चों के साथ बुरा बर्ताव किया जाता है तो बच्चे भाग जाते हैं। उन्हें ठीक-ठाक खाना तक नहीं मिलता है। इस तरह से सरकार द्वारा ऐसे बच्चों के देखभाल उचित के लिए संचालित बालगृह बुरे बर्ताव और उत्पीड़न का केंद्र बन जाते हैं।

हर साल मुंबई जैसे महानगर पहुंचने वाले हजारों बच्चे काम की तलाश में या काम की जगहों से भीख मंगवाने वाले नेटवर्क के हत्थे भी चढ़ जाते हैं। खास तौर से रेलवे स्टेशनों के प्लेटफार्म और चौराहों पर ऐसे नेटवर्क से जुड़े दलालों की सरगर्मियों को समझा जा सकता है। बहुत सारे बच्चे बहुत ही गंदे माहौल में महज खाने-पीने के लिए जद्दोजहद करते रहते हैं। इसके अलावा बहुत से बच्चे नशे के आदी हो जाते हैं तो बहुत से जुर्म की दुनिया में भी दाखिल हो जाते हैं.

भारत में ऐसा कोई कानून नहीं है, जो हर लिहाज से बाल-शोषण और उत्पीड़न को रोकने में मददगार हो। दूसरी तरफ कुछ जानकारों की राय में समस्या को दूर करने के लिए उसकी जड़ में पहुंचकर कानून के समानांतर गरीबी, विस्थापन, पलायन और विघटन से निपटने के प्रयास किए जाने की जरूरत है। साथ ही जो प्रावधान लागू हैं उन्हें क्रियान्वित करने वाली एजेंसियों के सक्रिय और धनराशि के सही इस्तेमाल करने की जरूरत है। इसी के साथ बच्चों के यौन-उत्पीड़न सहित सभी तरह के उत्पीड़नों को ठीक से परिभाषित किए जाने की भी जरूरत है। दूसरी तरफ राष्ट्रीय अपराध अभिलेख ब्यूरो में बच्चों के उत्पीड़न से जुड़े केवल ऐसे मामले शामिल रहते हैं, जिनकी रिपोर्ट पुलिस में दर्ज मिलती है। मगर असलियत जगजाहिर है कि ज्यादातर मामले तो पुलिस तक पहुंचते ही नहीं हैं। हालांकि सरकार की तरफ से ‘बाल अपराध निरोधक बिल’ संसद में लाने की बात की जाती रही है।

बच्चों की सुरक्षा पर कुल बजट में से 0.03% की बढ़ोतरी और महिला व बाल विकास मंत्रालय द्वारा एकीकृत बाल सुरक्षा योजना शुरू करने जैसी घोषणाएं की भी की जाती रही हैं। इन सबके बावजूद इस तरह की नीतियां बनाने और इन नीतियों पर विमर्श का दौर तो खूब चलता है। नहीं चलता है तो उन्हें गर्मजोशी से लागू किए जाने की कोशिशों का दौर.

शिरीष खरे (लेखक क्राई-इंडिया के संचार विभाग से जुड़े हैं)

3 Comments

  1. बच्चों की यह हालत देख, हृदय चीत्कार कर उठता है। चिन्तनीय लेख।

  2. I wrote d same essay for my hin assignment and got full marks..
    thank you

    EJ……….

  3. Author

    u r welcome!

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