बदले जो बफेट भी तो हम क्यों नहीं?

हर कोई अधीर है। किसी को धैर्य नहीं। फटाफट नोट बनाने की पिनक है। दो-चार साल क्या, लोगबाग दो-चार महीने भी इंतजार करने को तैयार नहीं हैं। जो लोग लांग टर्म हैं, वे एफडी और पीपीएफ में लांग टर्म हैं। शेयर बाजार में तो वे भी शॉर्ट टर्म हैं। लोग कहने लगे हैं कि वॉरेन बफेट का जमाना लद गया। दुनिया का यह सबसे कामयाब निवेशक भी अपनी सोच बदल रहा है। मसलन, पहले बफेट टेक्नोलॉजी शेयरों से दूर रहते थे। लेकिन इसी हफ्ते उन्होंने खुलासा किया है कि उन्होंने आईबीएम में 1200 करोड़ डॉलर (करीब 60,000 करोड़ रुपए) का भारी-भरकम निवेश कर रखा है।

यह भी कहा जा रहा है कि आज बिजनेस के तौर-तरीके एकदम बदल गए हैं। आर्थिक माहौल ज्यादा ही अनिश्चित और अस्थिर हो गया है। कभी नीचे तो कभी एकदम ऊपर। एकदम से ठंडा, एकदम से गरम। ज्वार-भाटा। फिर, दुनिया की सारी अर्थव्यवस्थाएं आपस में जुड़ गई हैं। अमेरिका का संकट सारी दुनिया का संकट बन जाता है। इटली का डिफॉल्ट इंडोनेशिया के बाजार की चूलें हिला देता है। ग्रीस की परेशानी भारत को पसीना-पसीना कर देती है। बड़ी से बड़ी कंपनियां अचानक खाक में मिल जाती हैं। संरचनाएं इतनी तेजी से बदल रही हैं कि आप किसी भी विचार से चिपके नहीं रह सकते, क्योंकि पलक झपकते ही वो अप्रासंगिक हो जाता है।

ऐसे में वैल्यू निवेश और लांग टर्म का आखिर क्या मतलब रह गया है? जब सब क्षणभंगुर है तो शाश्वत का लफड़ा क्या! हमारे-आप जैसे निवेशकों की सोच यही हो गई। वैसे, अगर अपने यहां रिटेल निवेशक शेयर बाजार से दूर हो गए हैं तो उसकी एक वजह यह है कि 1991 से 2004 के बीच करीब 14-15 सालों तक सूचकांक कमोबेश एक ही स्तर पर स्थिर रहा। सबको लगने लगा कि इक्विटी से कमाई करने का एक ही तरीका है कि ट्रेडिंग करो, बराबर खरीदते बेचते रहो।

2003 के बाद हालात बदले हैं। बाजार ने बराबर रिटर्न दिया है। लेकिन इस दौरान उतार-चढ़ाव या वोलैटिलिटी भी जबरदस्त रही। कुछ को समझ में आ गया कि ट्रेडिंग के बजाय निवेश करने में फायदा है और वे इक्विटी में ज्यादा निवेश करेंगे लांग टर्म के लिए। लेकिन ज्यादातर निवेशक वोलैटिलिटी पर खेलना चाहते हैं। उनको लगता है कि कल किस कंपनी का क्या हो जाएगा, क्या पता। इसलिए शेयरों के रुझान को पकड़कर नोट बना लेने में क्या हर्ज है! वैसे, हमारा मानना है कि बफेट अब भी प्रासंगिक हैं। उनका सूत्र है – ऐसी कंपनियों में निवेश करें जिनका बिजनेस मॉडल मजबूत हो, जिनका प्रबंधन अच्छा हो और जो ऐसे भाव पर मिल रही हों, जहां से सुरक्षित अच्छा मार्जिन मिल सकता हो। अब ऐसी कंपनी चुनना ही तो असली चुनौती है बफेट साहब। खैर, कुछ फुटकर बातें जो हम इस हफ्ते पहले लिख-पढ़ चुके हैं…

  • जो लोग लाखों-करोड़ों का धंधा करने बैठे हैं, वे खबरें पाने के लिए नहीं, खबरें चलाने के लिए मीडिया का इस्तेमाल करते हैं। इसलिए कोई सोचे कि वो बिजनेस चैनल या अखबार से मिली खबरों के दम पर बाजार को मात दे देगा तो वह इस दुनिया में नहीं, मुंगेरीलाल के हसीन सपनों की दुनिया में जी रहा है। हां, हम मीडिया से विश्लेषण का तौर-तरीका जरूर सीख सकते हैं। उन्हें देख-पढ़कर अपनी वित्तीय साक्षरता का स्तर उन्नत कर सकते। हम यकीनन शेयर बाजार के जरिए अपनी बचत को संपदा बनाने के काम में लगा सकते हैं। लेकिन उसके लिए नीर-क्षीर विवेक, तमाम उपलब्ध तथ्यों का विश्लेषण करने का कौशल हासिल करना जरूरी है।
  • मजदूरों की हड़ताल किसी भी स्वस्थ औद्योगिक माहौल में चलती रहती है। चलती रहनी चाहिए। आम बात है। तात्कालिक मसला है, सुलझ जाएगा। गौर करने की बात है कंपनी की लाभप्रदता और सतत विकास।
  • सबसे मुश्किल काम है होता है सही स्टॉक का चयन और उसमें हम बराबर आपकी मदद कर रहे हैं। आपको जमता नहीं तो आप भारी नोट खर्च करके यह सेवा औरों से ले सकते हैं। लेकिन वहां से भी बस इतनी ही गारंटी है कि आपका अनुभव ‘लग गया तो तीर नहीं तो तुक्का’ का रहेगा।

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