बासेल-III मानक अपनाना भारतीय बैंकों के लिए मुश्किल नहीं: सुब्बाराव

स्विटजरलैंड के बासेल शहर में जब दुनिया भर के बैंकिंग नियामक नए मानक को लेकर माथापच्ची कर रहे हैं तब हमारे बैंकिंग नियामक भारतीय रिजर्व बैंक के गर्वनर डॉ. दुव्वरी सुब्बाराव का मानना है कि बासेल-III मानकों को अपनाने में भारतीय बैंकों को खास कोई मुश्किल नहीं होगी क्योंकि 30 जून 2010 तक ही वे 13.4 फीसदी का जोखिम-भारित आस्ति पूंजी पर्याप्तता अनुपात (सीआरएआर) हासिल कर चुके हैं, जिसमें टियर-1 पूंजी का हिस्सा 9.3 फीसदी है। डॉ. सुब्बाराव मुंबई में मंगलवार को प्रमुख उद्योग संगठन फिक्की और इंडियन बैंक्स एसोसिएशन (आईबीए) द्वारा वैश्विक बैंकिंग पर आयोजित सम्मेलन में बोल रहे थे।

सीआरएआर वह अनुपात है जिसके अनुरूप बैंकों को आस्तियों (दिए गए ऋण) व उनसे जुड़े जोखिम के हिसाब से पूंजी रखनी पड़ती है। इसके दो हिस्से टियर-1 व टियर-2 पूंजी के होते हैं। टियर-1 में मोटे तौर पर बैंक की इक्विटी की गणना होती है, जबकि टियर-2 में उसके द्वारा जारी बांडों से जुटाई गई रकम होती है। अभी सारी दुनिया में बैंकिंग के लिए बासेल-II मानक लागू हैं। इसके अनुसार बैंकों का सीआरएआर 8 फीसदी होना चाहिए। लेकिन भारतीय बैंकों के लिए रिजर्व बैंक ने इसकी न्यूनतम सीमा 9 फीसदी बना रखी है, जबकि सार्वजनिक क्षेत्र के बैकों के लिए सरकार ने 12 फीसदी की सीमा बांध रखी है। देश के सारे बैंकों ने 31 मार्च 2009 से ही बासेल-II मानक को अपना रखा है।

बता दें कि 2008 के वैश्विक वित्तीय संकट के बाद से ही जी-20 देशों में बासेल-II मानकों की कमियों को लेकर चिंता और चर्चा जारी है। वे इसकी जगह बासेल-III लाना चाहते हैं, जिसे पहले दिसंबर 2012 तक लागू करने देने की योजना थी। लेकिन फिलहाल इसे कम से कम एक साल आगे खिसका दिया गया है और लागू करने की अंतिम तारीख पर बहस जारी है। इस सिलसिले में मंगलवार को ही एक बैठक बासेल शहर में शुरू हुई है।

सुब्बाराव ने बैंकिंग सम्मेलन में कहा कि अधिकांश भारतीय बैंकों की टियर-1 पूंजी आरामदेह स्थिति (8 फीसदी से अधिक) में है और उनका डेरिवेटिव कामकाज भी खास नहीं है। इसलिए हमारे बैंकों के लीवरेज अनुपात (बैंक अपने धंधे के लिए खुद कितना उधार लेते हैं) को लेकर कोई समस्या नहीं है। उल्लेखनीय है कि वैश्विक वित्तीय संकट के दौरान तमाम अंतरराष्ट्रीय बैंकों का लीवरेज अनुपात 50:1 तक का रहा था। दूसरे उन्होंने अपने कर्ज के डेरिवेटिव बेच रखे थे। बेसल-II में इसे सीमित करने की कोई पुख्ता व्यवस्था नहीं थी। इसलिए माना जा रहा है कि दुनिया का वित्तीय तंत्र अचानक धसक गया।

रिजर्व बैंक गवर्नर से एक अहम बात यह भी रखी कि भारतीय बैंकों में से 70 फीसदी सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक हैं। इन बैंकों में सरकार की न्यूनतम पूंजी हिस्सेदारी 51 फीसदी रखी जानी है। बेसल-III अपनाने पर सरकार को इसमें अपनी पूंजी बढ़ाने में कोई मुश्किल नहीं आएगी क्योंकि बैंकों का मुनाफा बढ़ने के साथ सरकार का राजस्व भी बढ़ेगा। हां, उन्होंने एक बात जरूर उठाई कि सरकारी बैंकों के अधिकारियों की तनख्वाह निजी बैंकों के अधिकारियों से कम हैं। अगर निजी बैकों की होड़ में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को टिके रहना है तो उन्हें अपने अधिकारियों का वेतन पैकेज दुरुस्त करना होगा, नहीं तो वे निजी क्षेत्र की तरफ पलायन कर सकते हैं।

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