प्रकृति खुद को नई करती रहती है तो हर तरफ जीवन है। समाज को हमने, इंसानों ने बनाया है जिसकी संरचना चरण-दर-चरण जटिल होती जा रही है। इसे हम बराबर नया नहीं करते रहे तो इसमें जान नहीं बचेगी, वो मृत हो जाएगा।और भीऔर भी

चीजें अपने-आप में बड़ी सरल होती हैं। नियमबद्ध तरीके से चलती हैं। बड़ी क्रमबद्धता होती है उनमें। लेकिन हमारी सोच और अहंकार के चलते वे उलझी हुई नज़र आती हैं। सही नज़रिया मिलते ही सारा उलझाव मिट जाता है।और भीऔर भी

प्रकृति की संरचनाएं जैसी जटिल हैं, वैसी ही जटिलता हमारे भाव-संसार, विचारों की दुनिया और सामाजिक रिश्तों में भी है। जो इसे नहीं देख पाते या नज़रअंदाज़ करते हैं, वे अक्सर ठोकर खाते रहते हैं।और भीऔर भी

हमारा तारणहार, हमारा मुक्तिदाता कहीं बाहर नहीं, बल्कि हमारे अंदर बैठा है। वह प्रकृति का वो जटिल समीकरण है, उसके तत्वों का वो विन्यास है जो हमसे पूछे बिना हमें चलाता-नचाता रहता है।और भीऔर भी

ज़िंदगी इतनी अनिश्चित नहीं होती, दुनिया इतनी जटिल नहीं होती, लोग इतने कुटिल नहीं होते तो जीने में मज़ा ही क्या रहता! सब कुछ रूटीन, बेजान, एकदम ठंडा!! संघर्ष की ऊष्मा ही तो जीवन है।और भीऔर भी

यहां किसी कर्ता की जरूरत नहीं। ऑटो-पायलट मोड में है सब कुछ। आज से नहीं, जब से सृष्टि बनी, तब से। संरचनाएं जटिल होती गईं। नए भाव बनते गए। लेकिन चलता रहा ऑटो-पायलट मोड।और भीऔर भी

जटिलता तभी तक है जब तक बीच में अटके हैं। समझा नहीं है। तह तक पहुंचने पर सब आसान हो जाता है। सबसे अच्छा विचार सबसे सरल होता है। ज्ञान के सागर का सारा सार प्रेम का ढाई आखर ही होता है।और भीऔर भी