बस एक छाप, अनुभूति या आत्मा भर बची रह गई। क्या करूं उसका? महसूस कर सकता हूं पर देख नहीं सकता, छू नहीं सकता। शब्दों के शरीर में ढाल नहीं सका तो सब कुछ रहते हुए भी कुछ नहीं रहा।और भीऔर भी

शिव है तो शक्ति है। धरती है तो गुरुत्वाकर्षण है। शरीर है तो मन है। मन को निर्मल रखना है तो पहले शरीर को सहज व शुद्ध रखना जरूरी है। बाद में मन भी शरीर को साधने में मदद करता है।और भीऔर भी

शरीर को साधकर पहलवान बना जा सकता है और मन को साधकर वैज्ञानिक। लेकिन अनहद का उल्लास दोनों ही नहीं पा सकते। यह तो उन्हीं को मिलता है जो तन और मन दोनों को साधते हैं।और भीऔर भी

स्थिर शरीर से प्राण स्थिर होते हैं। स्थिर प्राण से बु्द्धि स्थिर होती है। स्थिर बुद्धि मन को संयत करती है। संयत मन चित्त को शांत करता है। शांत चित्त से ध्यान और ध्यान से योग सधता है।और भीऔर भी

आत्मा के बिना शरीर शव है और शरीर के बिना आत्मा भूत! लेकिन क्या उत्तरी ध्रुव को दक्षिणी ध्रुव से अलग किया जा सकता है या पेड़ों से जंगल को? इसी तरह शरीर व आत्मा भिन्न हैं, पर अलग नहीं।और भीऔर भी

मन में आए भाव-विचार के माफिक शरीर रसायन बनाता है और शरीर में पहुंचे रसायन मन को घुमा डालते हैं। फिर, रसायन तो रक्त के साथ पोर-पोर तक जाता है तो मन भी हर पोर तक पहुंच जाता होगा!और भीऔर भी

तन है, मन है और आत्मा भी है। पदार्थ और चेतना के अलग-अलग स्वरूप हैं। आपस में ऐसे जुड़े हैं कि अलग हो ही नहीं सकते। एक के खत्म होने पर दूसरा खल्लास। इसलिए इन तीनों को स्वस्थ रखना जरूरी है।और भीऔर भी

हमारे शरीर में एक स्वतंत्र प्रणाली बराबर काम करती है। चेतना कोई फैसला करे, दिमाग इससे पहले ही फैसला कर चुका होता है। लेकिन इंसान होने का लाभ यह है कि चेतना दिमाग के फैसले को पलट भी सकती है।और भीऔर भी

आकर्षण तभी तक है जब तक हम में नया कुछ रचने की क्षमता है। स्थूल रूप में देखें तो सृजन की क्षमता खत्म होते ही चेहरे और शरीर की रौनक चली जाती है। सृजन और सामाजिक स्वीकृति में भी यही रिश्ता है।और भीऔर भी

हम क्या हैं? अपने शरीर से किस तरह भिन्न हैं? मुझे तो लगता है कि हम इस शरीर के इन-बिल्ट ड्राइवर हैं। और, अच्छा ड्राइवर वही है जो गाड़ी की मेंटेनेंस के साथ-साथ उसे पूरी तरह कंट्रोल में रखना जानता है।और भीऔर भी