हर साल, नया साल। नहीं पता कि अगले 365 दिनों में क्या होगा। अज्ञात में छलांग। समय की धार है, प्रवाह है जिसमें हर किसी को बहना है। लेकिन अज्ञान नहीं होना चाहिए। नहीं तो अज्ञात आपको चकरघिन्नी बना सकता है। वहीं, अगर ज्ञान और हौसला हो तो कामयाबी के दरवाजे खुलते चले जाते हैं। शेयर बाज़ार इसी अज्ञात में छलांग लगाने जैसा काम है। जो ज्ञान से, समझदारी से, अपनी सीमाओं को समझते हुए रिस्क उठातेऔरऔर भी

विदेशी निवेशक भारतीय शेयर बाज़ार से निकल रहे हैं। उनके निकलने से सिस्टम में डॉलर घट गए तो डॉलर का भाव रुपए में बढ़ गया। दिसंबर तिमाही में विदेशी निवेशकों ने 4.2 अबर डॉलर यहां से निकाले हैं। इससे हमारा रुपया 1.9% खोखला हो गया। समूचे एशिया में सबसे ज्यादा मार रुपए पर पड़ी है। विदेशियों के इस तरह निकलने से बीएसई सेंसेक्स 19 अक्टूबर के शिखर से 10% से ज्यादा गिरने के बाद अब जाकर थोड़ाऔरऔर भी

जिन कंपनियों ने अभी तक मुनाफा कमाने का माद्दा न दिखाया हो, उनमें इस भरोसे निवेश करने का कोई मतलब नहीं कि वे भविष्य में जमकर मुनाफा कमा लेंगी। हेज़ फंड ही इस तरह का जोखिम उठा सकते हैं, मध्यवर्ग से आनेवाले साधारण निवेशक नहीं। उन्हें तो अपनी बचत को बढ़ाने के लिए बहुत संभल-संभल कर चलना होता है। इसलिए हमेशा बचत का लगभग आधा हिस्सा एफडी और पीपीएफ जैसे सुरक्षित माध्यमों में लगाते रहना चाहिए। म्यूचुअलऔरऔर भी

सारा ब्रह्माण्ड, दुनिया, ज़माना और हमारे इर्द-गिर्द अंदर-बाहर की हर चीज़ हल पल बराबर बदलती रहती है। पिछले दस सालों में तो ज़माना कुछ ज्यादा ही तेज़ी से बदला है। इसमें भी पिछले दो साल में तो कोरोना ने सारी दुनिया, हमारा समूचा जीवन ही बदल डाला। सबक यह है कि लम्बे समय का निवेश चुनते वक्त वैसे ही उद्योग की कंपनी चुनी जाए जिसमें समय के साथ चलने का दमखम हो। ऐसा न हो कि कैसेटऔरऔर भी

लम्बे निवेश के लिए शेयर बाज़ार से कंपनियों को चुनना बड़ी टेढ़ी खीर है। देखना पड़ता है कि कंपनी कर्ज में तो नहीं डूबी, उसके धंधे में बरक्कत की कितनी गुंजाइश है, प्रवर्तकों का मालिकाना कितना है आदि-इत्यादि। लेकिन हम केवल एक मापदंड पर कस लें तो कंपनी चुनना आसान हो जाता है। यह मापदंड है कि वह लगाई गई पूंजी पर कितना रिटर्न (RoCE) कमा रही है। देश में पूंजी की लागत जितनी हो. मतलब वास्तविकऔरऔर भी

शेयर बाज़ार अचानक जब धराशाई होने लगता है तब निवेश का वाजिब पोर्टफोलियो बनाने की अहमियत समझ में आती है। वैसे तो निफ्टी-50 और सेंसेक्स-30 भी क्रमशः 50 और 30 स्टॉक्स से मिलकर बना एक तरह का पोर्टफोलियो ही है। लेकिन इनका उठना-गिरना बाज़ार के उठने-गिरने का पर्याय है। इनके ज्यादा गिरने पर निवेश का पोर्टफोलियो ज्यादा न गिरे, ऐसी कंपनियों की टोकरी बनाना ही असली पोर्टफोलियो बनाना होता है। अमूमन 20-30 स्टॉक्स या कंपनियों की सूचीऔरऔर भी

हर बड़ी कंपनी अच्छी नहीं होती और हर छोटी कंपनी खराब नहीं होती। यह अलग बात है कि एफआईआई जैसे बड़े निवेशकों के लिए छोटी कंपनियां उस ‘मछली जल की रानी है’ की तरह होती हैं जिन्हें ‘हाथ लगाओ डर जाएगी, बाहर निकालो मर जाएगी।’ असल में इन कंपनियों की इक्विटी बेहद कम होती है जबकि एफआईआई की न्यूनतम खरीद भी अपेक्षाकृत बहुत बड़ी होती है। उनके घुसते ही ऐसी कंपनियों के शेयर चढ़ जाते और निकलतेऔरऔर भी

रिजर्व बैंक ने अंततः वह स्कीम शुरू ही कर दी जिसके जरिए आम लोग सीधे-सीधे सरकारी बांडों में निवेश कर सकते हैं। लेकिन सवाल उठता है कि जब उन्हें पीपीएफ में 7.1%, किसान विकास पत्र में 6.9%, एनएससी में 6.8% और सुकन्या समृद्धि योजना में 7.6% सुरक्षित सालाना ब्याज मिल रहा है तो वे 6.3% पाने के लिए सरकारी बांडों का रुख क्यों करेंगे? कुछ जानकार बताते हैं कि केंद्र सरकार को इस साल 12.5 लाख करोड़औरऔर भी

शेयर बाज़ार को प्रभावित करनेवाले सारे कारक सही-सही पता हों तो उसकी भावी दशा-दिशा निकाली जा सकती है। यह कोई रॉकेट साइंस या चमत्कार नहीं, बल्कि सीधा-सीधा गणित है। अंकगणित नहीं तो बीजगणित से लेकर लीनियर अल्जेबरा व कैल्कुलस तक से हम सटीक गणना कर सकते हैं। लेकिन दिक्कत यह है कि शेयर बाज़ार में एक कारक अज्ञात है जिसका बहुत हुआ तो अनुमान भर लगा सकते हैं। वो है यहां सक्रिय इंसानों को मनोविज्ञान। हमें अपनाऔरऔर भी

कागज़ का पतला पन्ना भी अगर दो फोल्ड का दो फोल्ड करते रहा जाए तो 42 बार ऐसा करने पर वह परत-दर-परत इतना मोटा हो जाएगा कि धरती से चांद तक से भी ऊपर चला जाएगा। जी हां, यह गणना आप खुद करके देख सकते हैं। अमूमन कागज़ के पन्ने की मोटाई 0.1 मिमी होती है। एक्सेल शीट पर 0.1*2^42 का हिसाब निकालें तो परिणाम आता है 4,39,804.65 किलोमीटर, जबकि धरती से चांद की दूरी है 3,84,400औरऔर भी