मर्म जानो, धर्म तो समझो बाज़ार का
यह सच है कि इंसान और समाज, दोनों ही लगातार पूर्णता की तरफ बढ़ते हैं। लेकिन जिस तरह कोई भी इंसान पूर्ण नहीं होता, उसी तरह सामाजिक व्यवस्थाएं भी पूर्ण नहीं होतीं। लोकतंत्र भी पूर्ण नहीं है। मगर अभी तक उससे बेहतर कोई दूसरी व्यवस्था भी नहीं है। यह भी सर्वमान्य सच है कि लोकतंत्र और बाजार में अभिन्न रिश्ता है। लोकतंत्र की तरह बाजार का पूर्ण होना भी महज परिकल्पना है, हकीकत नहीं। लेकिन बाजार सेऔरऔर भी
बुरे वक्त का साथ
अलौकिक नहीं, लौकिक शक्तियां ही हमें बुरे वक्त से उबारती है। कुछ को हम देख लेते हैं, ज्यादातर को नहीं। यहां तक कि साथ देनेवाले तक को भी अलौकिक शक्तियों का दूत मानते हैं। धंधेबाज़ इसका फायदा उठाकर अपना वक्त चमका लेते हैं।और भीऔर भी
सबसे बड़ी जीत
खुद को जीतना सबसे बड़ी जीत है। यहीं से हर विजय-पथ की चाभी मिलती है। अगर अपने को नहीं जीत सके, संयम नहीं रख सके तो कुछ भी हासिल करना असंभव है क्योंकि बिखरी-बिखरी शक्तियां आपकी मारक क्षमता को ही मार देती हैं।और भीऔर भी
जिजीविषा की परख
जीवन और मृत्यु की शक्तियां बराबर हमें अपनी ओर खींचती रहती हैं। उम्र के एक पड़ाव के बाद मृत्यु हावी हो जाती है। तभी परख होती है हमारी जिजीविषा की कि मृत्यु के जबड़े से हम कितनी ज़िंदगी खींचकर बाहर निकाल लेते हैं।और भीऔर भी
इच्छाधारी शक्तियां
इस सृष्टि में अनंत अदृश्य शक्तियां सक्रिय हैं। वे इच्छाधारी हैं और खुद को जितना चाहें, उतना गुना कर सकती हैं। आहट मिलते ही वे मनोयोग व लगन से काम में लगे लोगों की मदद को दौड़ पड़ती हैं।और भीऔर भी
जाल संयोग का
इतने सारे लोग, इतनी सारी शक्तियां और उनके बीच के इतने सारे संबंध। इन्हीं के प्रभाव से चलता है वर्तमान और भविष्य। हम जटिलता के इस सघन जाल को भेद नहीं पाते तो उसे किस्मत या संयोग कह देते हैं।और भीऔर भी
अवरुद्ध रंध्र
जब भी हम नया कुछ रचते हैं, रुके हुए सोते बहने लगते हैं, अंदर से ऐसी शक्तियां निकल आती हैं जिनका हमें आभास तक नहीं होता। इसलिए काम शुरू कर देना चाहिए, काबिलियत अपने-आप आ जाएगी।और भीऔर भी